"कहां से लाओगे"
करके तिरस्कार संस्कारों का,
सम्मान कहां से लाओगे ?
खोकर अपनी सब मर्यादा,
स्वाभिमान कहां से पाओगे।......१
डूबकर पाश्चात्य पद्धति में,
एक दिन स्वयं को भूल जाओगे।
न घर के न घाट के रह सकोगे,
अपनी पहचान तक को तरस जाओगे।....२
यही हाल अपना कर जीते रहना सीख तो लोगे,
परन्तु मरने के बाद ऊपर क्या मुंह दिखलाओगे।
आधुनिकता वर्तमान में सार्थक तो जाएगी परन्तु,
भविष्य में क्या तुम यथार्थ को संचित कर पाओगे ?....३
तमस प्रभाव और चिंतन के अभाव,
क्या कभी इनमें समन्वय कर पाओगे।
यदि हां! तो प्रण करो अपने आप से अभी,
संस्कारों का पाठ पढ़कर सबको पढ़ाओगे।......४
बनकर आर्यावर्त के तुम प्रवासी,
समस्त ब्रह्माण्ड को यह बतलाओगे।
संयम, सतर्कता,अनुशासन और मर्यादा,
इनका डंका समस्त विश्व में बजवाओगे।....५
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असर कैसे हो दुआओं में मेरी,
शिद्दत तो वहां भी नहीं है।
खुदा खुद ही पूछ लेता है मुझसे,
तू सांस ही क्यों लेता है जब तेरा ये जहां भी नहीं है।-
करूं भी तो क्या हाले दिल उनका मैं जानकार,
कमबख्त ये मजबूरियां इजाज़त ही नहीं देतीं।-
बदन में दर्द फिर भी लबों पर मुस्कुराहट है।
ये जिंदगी की रज़ा है या फिर मेरी ही चाहत है।
कम करके ख्वाहिशें मैं सुकून को ढूंढ रहा हूँ अब,
खुद में ही खुश हूँ अब,शायद ये खुशियों की नई आहट है।-
मैं सुकून लिख रहा हूँ गर्दिशों में भी,
जिंदगी!कोई खिताब शायद अब बाकी नहीं।-
शामें तो गुज़र जाएंगी शमा को देख देख कर,
फिर एक सुबह होगी मुस्कुराकर।
और उसकी वजह हम होंगे।-
ऐसा नहीं है कि मुझे थकान नहीं होती।
हां,सच भी है कि कभी किसी चेहरे पर मुस्कान नहीं होती।
मिलता है बेहद सुकून मुझे जब ज़मीर से मुलाकात होती है,
रातों को चैन की नींद भी चौधरी साहब उतनी आसान नहीं होती।-
रौंदे अरमान तो होश आया,
बरसा आसमान तो होश आया।
मुसीबतों की नींद ने कर दी जिंदगी तबाह,
जब फरामोश हुए एहसान तो फिर जोश आया।-
बुरा हूँ मगर सोना खरा हूँ,
टूटा हूँ हालात से फिर भी यक़ीन से भरा हूँ।
जलता हूँ हर रोज जिंदगी की जद्दोजहद भरी तपिश में,
टूटता है हौसला हर पल फिर भी नए इरादों से हरा हूँ।-
लगे मुनासिब तो कुछ बात कर लेते हैं ।
बहुत दिन हो गए,चलो मुलाकात कर लेते हैं।
चलते रहेंगे मुसीबतों के सिलसिले हर रोज यूं ही,
जहां भी मिले खुशनुमा माहौल,वहीं इश्क़ की बरसात कर लेते हैं।-