सुकून है या नशा।
जब भी तेरे साथ होता हूँ,
खो जाता हूँ।-
नाजुक मिजाज़ तो रखा था हमने भी इश्क़ में,
फिर वो दिल की जगह दिमाग से क्यों खेल गये ?-
उचटत नींद भयावह नैना,
केहि विधि कटत मोरी यह रैना।
विलंब कहूं या तोरी जेहि मनमानी,
शुष्क दृग भए अब मांगत पानी।
करो उपकार बनो मृदुल व्यवहार,
चलो मनाएं हम अब प्रेमृ त्यौहार।
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हुकूमत मेरी अब मुझ पर भी कहां रही,
जब से देखा है उन निगाहों ने–
कमबख्त सांसें भी उनके इशारे पर चलती हैं।-
बढ़ने लगी है बेकरारी,
शायद तेरे ख्वाबों का असर है।
मजबूरियां अभी भी मुकद्दर में हैं,
तू सलामत है बस मुझे इसी बात का सबर है।-
न देख सके जो खुद के ऐब,
इलज़ाम अब खुदा की बनी शख्शियत पर लगाते हैं।
अब इसे गुनाह कहूं या उनकी फितरत,
वही खुद को पारसा बतलाते हैं।-
प्रज्वलित से मनोभाव,
जब करते हैं मानसिक प्रभाव।
तब होता है भावनाओं का उद्गम,
मन मस्तिष्क की कोशिकाओं,
और कल्पनाओं की संरचनाओं पर।
फिर से आहट होती है थमने जैसी
मानो कोई प्रवाह शुष्क हो गया हो।
निकलने लगी हो हिमखंडो की वाष्प,
ऊर्जा और ऊष्मा को संचरित करती।
यकायक होता है प्रारम्भ ऐसी विभा का,
जिसका चित्रण यथार्थ से संबंधित हो जैसे।
तभी जागृत चेतना का होता है प्रहार मुझ पर,
सावधान! तुम कल्पनाओं के लिए नहीं बल्कि,
वास्तविकता के लिए बने हो।
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एक बात है जो लबों पर आ रही है,
मेरी धड़कन तेरी ही कमी बता रही है।
यूं बार बार ख्वाबों आना तुम्हारा कोई इत्तेफ़ाक नहीं,
रह रह कर मुझको जिंदगी में तेरी ही कमी सता रही है।-
समाहित है ऐसे मानो पूरा ब्रह्मांड हो,
घुलनशील है जैसे कोई विद्वान प्रकांड हो।
मैं रिस रिस कर निखर रहा हूं उसके सानिध्य में,
प्रवाहित है एक ज्वार सा जैसे कोई धारा प्रचंड हो।
शिथिल हो रहा हूं ऐसे जैसे शून्य में कोई हिमखंड हो।
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