पराये को देखने में, कोई 'अपना' छूट जाता है। इश्क से नजर मिलते ही, 'दोस्त' रूठ जाता है। चलता तो हूँ बहुत संभल कर हर बार फिर भी, दिल 'कांच' का जो है मेरा, अक्सर टूट जाता है।
शीशे का घर है ज़िन्दगी, कब तक बचाओगे हर हाथ में है पत्थर यहाँ, अब कहाँ जाओगे ऊँचाइयों पर अपनी, यूँ बेखौफ़ न हो साहिब एक रोज़ किसी पत्थर की ज़द में आ ही जाओगे