अकेलेपन मे, नाम से पुकारा गया में
अंधेरों से बेहतर मुझे कोई नही जानता-
चाँद अधूरा सजता रहा पुरा होकर सिमट गया
और ईस परिक्षेप की रेखा उसे अंधेरों में ले गई-
लगें जैसें की हिंदी का श्रंगार हो तुम
वर्ण व्यंजन ध्वनि सा आधार हो तुम
चाँद की अलसायी हुईं उन आँखों में
रंगीन,सारा का सारा निखार हो तुम
दरीचा आफ़ताबी, आसमानी आँगन
सतरंगी गिरे वो हल्की फ़ुहार हो तुम
क्या कहूं में, तुमको हो शख़्सियत क्या
बार बार पढ़ें जिसे वो अख़बार हो तुम
जब जब पढ़ा मैंने तुमको,तुम्हीं से तो
लगा हिंदी का असल घर बार हो तुम-
सूख गया समंदर तो
किनारा ही रह जाएगा
जो अपनो से तृप्त है
खारा ही रह जाएगा-
माँ-बाप की शाख़ छोड़कर कुछ 'अनक्ष'
प्यार से वफ़ा की उम्मीद लगाए बैठते है-
वजूद पिता ने भी किस तरह से खंगाला है
बिगड़ें बेटें है औऱ उसने बेटियों को संभाला है-
एक औऱ आज़ादी बाहर से मिली है
एक आज़ादी अंदर मिलना चाहिए
देश को फिर तरक़्क़ी विकास चाहिए
तो देश भृष्टाचार से मुक्त होना चाहिए-
उलझा है ज़माना धर्म ज़ात की पाबंदियों में
ज़मी पे इंसान खुद का भगवान जो हो गया है-
साँसों के शोर पर,
साँसों का जोर है
बाहर दिखता हूं में,
अंदर कोई औऱ है-