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(Read in caption)
वेतन पुनरीक्षण
(अनुशीर्षक में पढ़ें)-
दो अठन्नी से दोस्ती शुरू हुई थी हमारी। स्कूल कैंटीन में समोसे खरीद रहे थे हम दोनों। अठन्नी दो, लेकिन समोसा एक। तुमने ज़िद्द कर खुद के लिये खरीदा था। मेरा लटका मुँह देख तुमने वो समोसा तोहफे में मुझे सौंप दिया। मैंने आनाकानी की थी पर पेट में दौड़ते चूहों ने मानो भूख का एक ज़बरदस्त तूफान भेज दिया था। कुछ सोचे बगैर आधा समोसा मैं गड़प कर बैठा। तभी मैंने तुम्हारा चेहरा देखा। मायूस सा। फिर क्या था, तुम्हारा समोसा वापस। आधा अधूरा। हमारी दोस्ती जैसा।
अगले दिन फिर वही कैंटीन, फिर वही दो अठन्नीयां। लेकिन समोसे अनगिनत। आज कोई लड़ाई नहीं। काश होती। हम दोनों अपना अपना समोसा ले नज़दीक की बेंच पर विराजमान। लेकिन वो मज़ा नहीं जो पिछले दिन था। बाँटने का। एक नज़र अटकी, एक मुस्कान उमड़ी। दोनों के हाथ मे आधा समोसा। आधी दोस्ती। पूरी करने का एक ही तरीका। गड़प, एक दूसरे का।-
ये जो + दबाने पर लपक कर आता है, उस कीबोर्ड को समझाओ कि लफ्ज़ को इतनी जल्दी नहीं इस डिजिटल काग़ज़ पर तैरने की। जल्दी है तो उसके इनबॉक्स में उतरने की और वहीं रहने की, हमेशा, इस आस में कि कभी यूँही किसी रात को नींद ना आने पर उन्हें पढ़ गलती से typing और उसके सामने बेचैन करने वाले तीन बिंदु ... दिख जाए। मानो एका-एक सरपट एक जवाब आये, ठहरे, सहमे और रुक जाए, फिर बैकस्पेस की बारीक़ धार उसे छिल जाए। और मैं।
अरे भाई मेरा क्या? मैं इत्मिनान से इस बुलबुले से चुलबुले कीबोर्ड को देख, कुछ लफ्ज़ जो उस चैट विन्डो में मौजूद होने की खुशी गवाँ बैठे हैं, उन्हें बटोरता हुआ यहाँ, इस कोट के चार दीवार में उन्हें एक और रात अपना सर टिका सो जाने की दरख्वास्त कर सो जाऊंगा। जैसे आज।-
चाय बना के रखना
बिस्किट मँगा के रखना
सुनाना अपनी तुम स्टोरी
कविताएँ मेरी चखना-
।मैं ख़ुद से मिल रहा हूं-1।
बड़े दिनों से ख़ुद से बातें कर रहा हूं
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं
ये मैं ही हूं,जो मुझको को हंसाता हूं
मेरी हर जीत पर पीठ थपथपा ता हूं
ग़म में भी अपने साथ चल रहा हूं
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं....
कोई है जो मुझे हर कमी बताता है
कोने कोने से मुझे हीरा बनाता है
मैं अपना जौहरी हूं खुद को तराश रहा हूं
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं....
बड़े दिनों से खुद से बातें कर रहा हूं
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं...
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किसी ने मुझसे पूछा ,
यू घुरकर क्या दिखाना चाहते हो ।
मैंने कहा अजी घूरना किसे आता है,
हम तो बस आपको अपनी आंखो में बसाना
चाहते है।-
नज़रों से उतार कर नज़र तुम्हारी
नज़रों में उतारूँ नज़रे तुम्हारी ।
कुछ यूँ हो कि हो जाऊं काज़ल मैं
लग कर पोरों पर सँवारुं मैं नज़रे तुम्हारी ।-