ASHISH CHAUHAN   (Ashish Singh)
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Joined 17 July 2019


Joined 17 July 2019
8 NOV 2020 AT 10:31

स्त्री विमर्श

"तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास?
पढ़ा है। कभी उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?
अगर नहीं
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में.....?

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26 SEP 2020 AT 14:51

कभी मिले कुछ वक़्त अगर तो, ठहर सोचना तुम कुछ पल
यूं ही वक़्त कटेगा या बेहतर होगा अपना कल।

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25 SEP 2020 AT 7:12

श्रेय नहीं कुछ मेरा,
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने,
सब कुछ सौंप दिया था -
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था ,
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय,
जो शब्दहीन,
सब में गाता है।

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16 SEP 2020 AT 11:54

मैं जिसे ओढ़ता- बिछाता हूं,
वो गज़ल आप को सुनाता हूं।

एक जंगल है,तेरी आंखों में,
मैं जहां राह भूल जाता हूं।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,
मैं अगर रोशनी में आता हूं ।

एक बाजू उखड़ गया जब से,
मैं और जादा वज़न उठाता हूं।

मैं तुझे भूलने की कोशिश में ,
आज कितने क़रीब पाता हूं।

कौन ये फांसला निभाएगा,
मैं फरिश्ता हूं सच बताता हूं।
-साये में धूप

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12 SEP 2020 AT 21:35

किस्से कहानियों पे ऐतबार करता है,
वो शख़्स भी किताबों से प्यार करता है।

वो जो बात मेरी सुनता ही नहीं कभी,
मंगर कहता है मेरी आवाज से प्यार करता है।

कोई तन्हा भी इतना है जमाने की भीड़ में,
अपनी दहलीज पे अपना इंतज़ार करता है।

लगता है वो जान देकर ही मानेगा अब,
करके तौबा जो इश्क़ बार बार करता है ।

जहर दे रहा हर रोज बता के दवा मुझको,
सच जनता हूं लेकिन दिल ऐतबार करता है।

वो बचपन जो इसके छांव तले खेला करता था ,
एक बूढ़ा बरगद फिर बच्चों का इंतज़ार करता है।

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8 JUN 2020 AT 17:13

"मैं वह नहीं हूं जो
मैं समझता हूं कि मैं हूं;
मै वह भी नहीं हूं जो
तुम समझते हो कि मैं हूं;

मैं वह हूं जो मैं समझता हूं
की तुम समझते हो कि मैं हूं।"
_चार्ल्स हटन कूले

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8 JUN 2020 AT 16:46

जरूरत से ज्यादा सहिष्णु नहीं होना
क्योंकि जिस तार में बिजली नहीं
होती लोग उन पर कपड़े सुखा
देते हैं......

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8 JUN 2020 AT 8:59

ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हों तो भीग जाया कर,

चांद लाकर कोई नहीं देगा
अपने चेहरे से जगमगाया कर,

धूप मायूस लौट जाती है
छत पर कपड़े सुखाने आया कर,

काम ले कुछ हंसीन होंठों से
बातों बातों में मुस्कराया कर,

दर्द हीरा है दर्द मोती है
दर्द आंखों से मत बहाया कर।

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3 APR 2020 AT 11:12

।ख़ुद से मिल रहा हूं-2।

बड़े दिनों से खुद से बातें कर रहा हूं
ख़ुद में गुम हूं अौर ख़ुद से मिल रहा हूं।

धड़कने जब बढ़ती हैं तो हौंसलें देता है
मेरे दिल में बस मेरा मन रहता है
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं

ज़िन्दगी तो अपनी थी अपने को जी रहा हूं
ख्वाहिशें भी अपनी थी अपने में ढूंढ़ता हूं
कमियां तो अपनी ही थी अपने को सोचता हूं
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं

बड़े दिनों से खुद से बाते कर रहा हूं
ख़ुद में गुम हूं और खुद से मिल रहा हूं


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2 APR 2020 AT 13:58

आदत सी लग जाती है
उन बचपन कि गलियों की
जिसमे हम दिन रात
खेला करते थे कहां
गुम हो जाती है वो
सरार्ते जिनको करने के
पहले हम कुछ भी नहीं सोचा
करते थे गुम हो गई वो
यादें जिन्हें हम बिना
किसी की परवाह की जिया करते थे...

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