विना विप्र च यो धर्मःप्रयासफल मात्रकम्।
भुजंते च सुराः तत्र प्रेता भूताश्च राक्षसाः।।
तात्पर्य-(ये संभवतः याज्ञवल्क्य अथवा मनुस्मृति से
अवतरित है)और जब कोई बिन ब्राह्मण के
धर्म या धर्मिक क्रिया करता है,और जहाँ शराब का उपभोग किया जाता है..वहाँ भूत प्रेत राक्षसों का
वास होता है..
स्मरण रहे..जब धर्मशास्त्र लिखे गये तो उनका तात्पर्य
कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था था..ब्राह्मण की परिभाषा
वेदपाठी,शास्त्रों का ज्ञाता..अध्ययन अध्यापन एवं दैव उपासना धारी..कम से कम एक शास्त्र या वेद का ज्ञान
जिसे हो वही ब्राह्मण होता है।कालान्तर में..द्विवेदी,त्रिवेदी,चतुर्वेदी,शास्त्री,एवं पंडित(पी एच डी)
जैसी उपाधियाँ ही..ब्राह्मणों की श्रेणी बन गयीं..और
कर्म के स्थान पर जन्माधारित हो गयीं।
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निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः,
न चैनं क्लेदन्तयापो, न शोषियति मारूतः
"आत्मा अमर है! "
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💫स्वात्युक्ति:💫 .....💫अनुष्टुप् छन्द:💫
विशाल: तत् समुद्र: किम्
उत्साह: दृढनिश्चय: |
तृणादेव नु निर्मान्ति
स्वनीडं किल पक्षिण: ||
अर्थात् समंदर विशाल है तो क्या ! बुलन्द हौसले हैं |
तिनकों से ही बनाती पंछियाँ अपने घोसले हैं |-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ॥
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अर्थ : सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु:ख से ग्रसित न हो.
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" मतृबत् परदारेषू परदृब्योषू लोष्टबत् ।"
Meaning of verse:👇🏻
पराया पत्नी को माँ समान तथा पराया धन को मिटि का रुप देखना चाहिए ।-
शून्यम पुत्रस्य गृहम चिर शून्यम नास्ति यस्य संमित्रम ।
मूर्खस्य दिशा शून्या ; सर्व शून्यम दरिद्रस्य ।।
अर्थात पुत्रहीन का घर सूना है,जिसका अच्छा मित्र नहीं है,(उसका घर) चिरकाल के लिए सूना है ,मूर्ख के लिए दशों दिशाएं सूनी हैं,निर्धन के लिए सब कुछ सूना है।।-
सत्यमेव व्रतं यस्य दया दीनेषु सर्वदा ।
कामक्रोधौ वशे यस्य स साधुः – कथ्यते बुधैः ॥
ଅର୍ଥାତ, ଯାହାର ବ୍ରତ କେବଳ ସତ୍ୟ, ଯିଏ ସଦା ସର୍ବଦା ଦୀନ ଓ ଦରିଦ୍ର ଙ୍କ ସେବା କରେ ଓ ଯାହାଙ୍କୁ କାମ ଓ କ୍ରୋଧ ଆୟତ୍ତ କରିପାରନ୍ତି ନାହିଁ, ତାଙ୍କୁ ହିଁ ସାଧୁ କୁହାଯାଏ।।
भावार्थ- केवल सत्य जिनका ब्रत है, जो हमेशा दीन और दरिद्र की सेवा करता है, जिनको काम और क्रोध भी बस नही कर सकता, उन्हीको साधु कहजाता है।।
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"श्लोक"
धर्मे च अर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्।।
'महर्षि वेदव्यासजी ने घोषणा की थी कि,
धर्म अर्थ काम और मोक्ष के सम्बन्ध में
जो कुछ महाभारत में कह दिया गया है
उसके बाद कुछ कहने को शेष नहीं रहता।-
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
nāsti mātṛsamā chāyā nāsti mātṛsamā gatiḥ।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा॥
nāsti mātṛsamaṃ trāṇaṃ nāsti mātṛsamā prapā॥
स्कन्द पुराण-(6.103-104 )
अर्थ-
माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस दुनीया में कोई जीवनदाता नहीं॥
There is no shade like a mother, no resort like a mother, no security like a mother, no other ever-giving fountain of life!
Skanda Purana Mo. Ch. 6.103-104
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