उत्सर्ग के समय
मेरा ध्यान
अंधकार युग में था
कि अब
प्रेम का पर्याय
कौन कहने आएगा
मुमुक्षु या रसिक !?-
न भूतो न भविष्यति ।।
🪔 वासुदेव: सर्वम् 🪔
मुझे इसी रूप में ही
गढ़ा गया है
विधाता ! ने मुझे
यही तत्व दिया है
स्त्रीत्व ही
मेरा आभूषण है
नारीत्व ही
मेरा श्रृंगार है-
फ़ुरसत मिले कभी तो
मेरा इख़्तियार कीजिए
मैं महलों की रियासत नहीं
जो रख कर भुला दी जाऊं
मैं सदा की आबोहवा हूं
जिसे छू कर गुजरती हूं
अकलुषित कर देती हूं-
आंख खुली तो
सामने जागीर नजर आई
पर तुम नज़र नहीं आए
मैंने ठुकरा दी...
मुझे तुम्हारे नैनों की
तुम्हारे अधरों की
तुम्हारे स्नेह की
तुम्हारे प्यार की
जागीरदारी चाहिए-
मैं मैं नहीं रहा !! तुम होना चाहता है
फिर तुम तुम नहीं रहा !! हम होना चाहता है-
आज्ञा दो ! अपनी सामीप्यता को
नहीं तो मैं उल्लंघन कर जाऊंगी
आज्ञा दो ! मध्यस्थता को
नहीं तो मैं विवाद कर जाऊंगी
आज्ञा दो ! प्रेम प्रणय की
नहीं तो मैं प्रवंचना कर जाऊंगी
मैं प्रेमातुर प्रेमपिपासू प्रेमनिमग्न
तुम्हारे परिणय पाश में बंधित हूं
प्रतिज्ञा करो !! साथ निभाने की
मुझे अधिग्रहण करो, ब्रजनन्दन !
नहीं तो मैं महाभियोग लगाऊंगी-
इस देह की पिपासा का क्या करूं !?
जो मुझे मृत्तिका किये जाती है
रति से अनुरागित मैं !!
प्रतिकर्षण से उत्पीड़ित हुई जाती हूं
मेरी हृदय की पीड़ा को कौन समझे !?
मेरी इच्छा तो तृप्ति की ही है
अब ये मेरा मोह है या आकर्षण !!
प्रेम तृष्णा से उद्वेलित
मधुपान को स्पर्श किये जाती हूं
मैं मदमत्त हुई जाती हूं
ब्रजरसिक ! तुम्हारी आसक्ति में
तुम्हें पाने को उन्मत्त हुई जाती हूं-
मुझे बिछुड़न की टीस सताती है
मुझे बैरन हवा बहा ले जाती है
तुम नहीं आये मेरे सांवरे ❣️
तुमसे मिलन की उत्कंठा में
श्रृंगार विहार में लीन हुई जाती हूं
फिर भी अगर तुम नहीं आये
मैं विरह वियोग में संतप्त
सांवरिया बनी जाती हूं...-
जिस्म का मिलना
कभी तय नहीं होता
उसे हम मंजूरी देते हैं
आत्माओं का मिलन
तय होता है जिसे हम
पुनर्मिलन कहते हैं-
एक हसीन सुबोह
एक अनकही मुलाकात
मुझे अचंभित कर रही है
और तुम्हारा.....
बेपरवाह होकर हंसना
मुझे स्निग्ध कर रही हो-