जो लोग कहते हैं
हमारे में तो बिल्कुल
"EGO" नहीं हैं
जरा एक बार ध्यान से
अपने आपको शीशे में देखो
खुद ही जान जाओगे
अपनी हकीकत ।
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ये कुछ ख़्वाब के रिश्ते,
हक़ीक़त में इस तरह मुझसे न जोड़िए,,
शीशे के हैं हम यूँ पत्थर से न तोड़िए...-
वही छीन गया आज मेरा सब्र-ओ-करार,
जिन ख्वाबों के मोहब्बत पे मुझे बड़ा गुमान था,
बे-करारी में पत्थर से शीशा का हुआ टकरार,
हाँ हकीकत के प्यार से मैं बहुत अनजान था,-
एक पत्थर की यादों में लिखता हूं ग़ज़ल
जो अक्सर शीशा समझकर मुझे ही तोड़ती फिरती है-
टूटा हुआ दिल और टूटा हुआ शीशा
दोनो ही टूटने के बाद बहुत चुभते है,
वक्त दोनों के ही जख्मों को भर देता है,
पर उसके निशान कभी नहीं जाते,-
शीशा तो टूट के अपनी कशिश बता देता हैं
दर्द तो उस पत्थर का हैं जो टुटने के काबिल भी नही..-
दिल एक शीशा है..!
इसे टुटने पर दर्द होता हैं..!!
ज़िंदगी एक हसीना है,
जिसे जीने के लिय एक साथी की ज़रूरत होती हैं, ताकि वह कभी टूटे ना...!
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क्या कहूं हाल-ए-दिल में अपना तुझसे
में हर रोज शीशा तोड़ के, जोड़ रहा हूँ,
कि जबसे बेवफ़ा होए हो न तुम
में तुम्हारी हर निशानी को तोड़ रहा हूँ!!-