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ज़ख्म
मैं जब टूट के बिखर जाता हूँ
हर बात पे बिफर जाता हूँ
तुम्हें ज़ख्मी कर जाता हूँ
फिर भी तुम एक एक टुकड़ा उठाती हो
चुन चुन कर समेट कर रख देती हो
जमीन पे बिखरे शीशे की तरह
और अपने ज़ख्म पर
ख़ुद करती हो
मरहम पट्टी-
माना की सच्ची मित्रता आइने की तरह होती है।
सही-गलत बताकर इंसान को रास्ते दिखाती है।
मगर अक्सर मैने ये देखा है की कड़वी
सच्चाई बतानेपर आईनेके शीशे तुट जाते है।-
शिशा टूट कर बिखरा तो
हज़ार आंखों को नज़र आया|
दिल टूट बिखरा तो
हज़ार दर्द जिस्म पर उभर आया |-
भीगे हैं खिड़की के शीशे
भीगा है मन भी मेरा
लगता है बारिश हुई थी कल रात
बाहर भी
और अंदर भी-
अक्स जमीं पर रखकर अपनी
ही कमियां टाल देती हूं
हसीं तलाशने खुद में,
खुद को शीशे में डाल देती हूं-
पराये को देखने में, कोई 'अपना' छूट जाता है।
इश्क से नजर मिलते ही, 'दोस्त' रूठ जाता है।
चलता तो हूँ बहुत संभल कर हर बार फिर भी,
दिल 'कांच' का जो है मेरा, अक्सर टूट जाता है।
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तुम्हारे सारे वायदें तो बस कांच का ख्वाब था ।
आज भी मेरे डायरी में एक मुरझा हुआ गुलाब था ।
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मैं सच-झूठ बयां करने से डरता हूं,
शीशा हूं जनाब टूट जाने से डरता हूं...-
शीशे का घर है ज़िन्दगी, कब तक बचाओगे
हर हाथ में है पत्थर यहाँ, अब कहाँ जाओगे
ऊँचाइयों पर अपनी, यूँ बेखौफ़ न हो साहिब
एक रोज़ किसी पत्थर की ज़द में आ ही जाओगे-