विरह
आग है
जिसमें शरीर नहीं जलता
जलती है तो केवल आत्मा
दो आत्माओं के मिलन से बना रिश्ता
जब आख़िरी साँस लेता है
तो बिलख पड़ता है आसमान
रो देती है धरती
और शोक में डूब जाता है पूरा ब्रह्मांड
विरह
हलाहल(विष) है
जो गले में ही कहीं अटका रहता है
जिसे निगला नहीं जा सकता
और उगलना भी मुश्किल होता है
जब विरह वेदना
चरम पर पहुँच जाती है
तब नर्म सा हृदय कठोर बनने लगता है
और फिर अंत हो जाता है
संयोग-वियोग के इस खेल का-
बरसात तो बेशुमार हुई मगर सावन नहीं आया,
अबके बरस भी लौट के मेरा साजन नहीं आया!
मेरी आँखों में छुपा है तेरा ही होने का उजियारा,
दिल में रहा सदा चाँद, पर मेरे आँगन नहीं आया!
बारिश की थी रिमझिम पर बदन में आग कायम,
जिस्म से तू था हाजिर पर मुझे सुकूँ नहीं आया!
बारिश की उम्मीद में, मैं चातक सरीखी बन गई,
पर स्वाति नक्षत्र में भी तू, बूंद बनकर नही आया!
तुमसे जो मोहब्बत की तो मैं दुनिया भी छोड़ दी,
फिर भी तू कभी, मेरा थामने दामन नहीं आया!
मेरी मौत भी बेबस है अब, आ के तेरे दर पर भी,
फिर भी जान कह रही है, मेरा जानम नहीं आया!
विरह के जख्म अब तो नासूर में तब्दील होने लगे,
एक बार भी "राज" तू मरहम बन कर नही आया! _राज सोनी-
बारिश के मौसम में
जब विरह के ओले पड़ते हैं
तब वो जी भर कर रोती है
और संतृप्त कर लेती है
खुद को किसी समुद्र की भांति
और
पतझड़ में
प्रेम की सूख चुकी
टहनियों के जल जाने से
वो भी सूख कर रह जाती है
क्या आंखें भी
किसी जलाशय
की तरह मौसम के आज्ञा
पर निर्भर करती हैं??-
निरंक पृष्ठ पर उकेरी गयी शब्द आकृतियाँ
कितनी विरोधाभासी
विरह वेदना प्रेम उदासी
सब के सब पराश्रित
क्षीण होती उर्वरा
बंजर हुए मन कोश में
परिप्रेक्ष्य और संदर्भ के
मध्य आकार लेती कल्पना
उद्भासित कर देती है
उस परम सत्य को
जिसे मिथ्या कहकर
टालने का दंभ
रखना....
अनुचित होकर भी
सदैव उचित है!
प्रीति
३६५ :33
-
"मैं आज भी प्रतिक्षारत हूँ,
शायद तुम्हें आने में और
विलंब हो, शायद कभी
न हो अब हमारा संगम"
"पर जब कभी लौटना तुम एक
ख्वाहिश पूरी कर देना मेरी!
समेट लेना मेरे तीक्ष्ण विचारों
और प्रबल अपेक्षाओं की राख को",
"और मेरा स्मरण कर लगा
लेना उस राख को अपने
हृदय से निष्पक्ष न्याय कर
मुक्त कर देना सदैव के लिए,
"मेरे बोझिल से अंत:करण को
ताकि उन्मुक्त विचरण कर सके
ये अंतरात्मा तुम्हारे विरह
घेरों के दायरों से निकलकर!"-
'जाकी रही भावना जैसी'
आज बात बिरह के साहित्य पर
नागिन बैठी राह में, बिरहन पहुँची आय
नागिन डर पीछे भई, कहीं बिरहन डस न जाय-
बाजत नगारे घन, ताल देत नदी नारे,
झींगुरन झांझ भेरी बिहंग बजाई है।
नीलग्रीव नाच कारी कोकिल अलाप चारी,
पौन वीन धारी चाटी चातक लगाई है।।
मनि माल जुगनू मुबारक तिमिर थार,
चौमुख चिराग चारु चपला चलाई है।
बालम विदेस नए दुख को जनम भयो,
पावस हमारे लाई बिरह बधाई है।।-
विरह जुदाई के सहुँ कैसे
तेरे बिन अब मै रहूँ कैसे
जब आई थी मेरे जीवन में
खिला था चेहरा फूल जैसे-