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जैसे
बिना तारों का आकाश
बिन जीवन का समंदर
या फिर शायद
बिना बर्फ़ का कोई पहाड़..
तुम्हारे बिना....
दुनिया है
पर नहीं है!-
मुझे आदत है तुम्हारे लिखे ख़तों को बार बार पढ़ने की। अब ये मत पूछना क्यों? ऐसे सवालों के जवाब ईश्वर ही जानता है! तुम साँस क्यों लेते हो, पलकें क्यों झपकाते हो, तुम्हारा दिल क्यों धड़कता है, इन सवालों का भी कोई जवाब होता है क्या?
ख़ैर, मैं बस अपनी आदत बता रही थी।
आदत तो मेरी और भी कई सारी हैं, जैसे खिड़की पर बैठ कर सड़क की तरफ़ देखते हुए चाय ठंडी करना, या बार बार चौखट के बाहर झाँकना, मानो किसी का बरसों से इंतज़ार हो। अब ये मत कहना कैसा इंतज़ार और किसका? इंतज़ार हमेशा अपनों का ही होता है, मुसाफ़िर तो आ कर चले जाते हैं। उनसे कोई राब्ता नहीं होता, ना ही होती है कभी लौट आने की उम्मीद!
उम्मीद से याद आया मैं ऑस्कर वाइल्ड को पढ़ रही थी। वो कहते हैं, "Be yourself, everyone else is already taken."। मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी। मुझे भी अब किसी से कुछ ख़ास उम्मीद रहती नहीं, खोये रहने के लिए कविताएँ अच्छी हैं!
वैसे, कविताओं से याद आया, तुम्हारे ख़त.....
क्यों नहीं आते अब?-