नही होतीं
(कविता अनुशीर्ष मे)-
इति...!!
क्या तुमने देखा है...?
बीज का मिट्टी में अंकुरण होना?
नदी का वाष्प बन जाना?
या फिर तितलियों के पँख का
रंग जाना?
नहीं न?
फिर मेरा प्रेम तुम कैसे देख पाओगे?
हर विद्दमान चीज़ को
देखने के लिए
ईश्वर ने सिर्फ आँखें ही नहीं
एक आत्मा भी दी है...
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जो श्रेष्ठ है शब्दों में उस शब्द का नाम मानवता
धरा का अस्तित्व स्थिर है जिससे वो प्राण मानवता!!
पर की पीड़ा में जो अश्रु बहाये वो भाव मानवता
जिसपर जीवन धारा चलाय मान वो नाव मानवता!!
स्व को त्याग कर हाथ बढ़ाये वो अनुपम भाव मानवता
निर्जन तपते गृष्म पहर में वट वृक्ष की छाँव मानवता!!
विधि की इस वसुधा पर अब क्यों करती है त्राहिमाम मानवता
हे! तुम प्राण धरो, जागृत करो,ना करो अब विश्राम मानवता!!-
रेल की खिड़की के बाहर एक दुनिया है
जहाँ भीड़ है लोग हैं गर्मी है
धूल है ,परेशानियाँ हैं शिकन
और शोर है
पर रेल के अंदर भी एक दुनिया है
जो शांत है,चुप है
जहाँ उष्णता नहीं है
ताप नही है
जो सुंदर है,जहाँ शोर नही है
दरअसल शोर है,
भीतर का शोर
दौड़ती पटरियों पर भागती रेल की चाप
जिसमें एक पल में हजारों आवाज है
जहाँ दृष्टि स्थिर है पर मन में कितना कुछ है
ये अंतर्मन कितना भारी है
और रेल के बाहर वाली दुनिया में
वक्त ही कहाँ है
भीतर के शोर को सुनने समझने या गिनने की?
शायद दुनिया गोल नही है
समानांतर है
रेल के अंदर की और
रेल के बाहर की
दुनिया से बनी हुई..
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