मोहब्ब्त तो उनकी सच्ची थी
जिनके खून की खुशबू से आज भी
हमारे देश की मिट्टी महकती है-
कितनी नादान है मेरे देश और गाँव की मिट्टी भी
सच है ये मिट्टी एक समान है सबके लिए, और
मैं यहाँ खेती कर के अन्न उपजता हूँ
हाँ मैंने अपनी फ़िकर नहीं किया कभी
भले चाहे भरी बरसात में हो या कड़ी धूप में
या कपकपाती जाड़े का मौसम ही क्यूँ न हो।
"अन्न उपजा कर खुद के संग संग सभी का पेट भरता हूँ मैं"
और फ़िर भी ये शहर के बड़े लोग
मुझ ग़रीब किसान को हीन भाव से देखते हैं
कभी देसी तो कभी गाँव वाला कह कर संबोधित करते हैं
सचमें बड़ा ही तुच्छ हूँ मैं इन बड़े लोगों के बीच में
पर ख़ुश हूँ, की ये बड़े लोग न सही मेरी मिट्टी ने मुझे दिल से अपनाया है।।
जय श्री राम 🙏-
कच्चे आम के पेड़ में अाती थी जब बौर
करते दातून नीम, किर्मिच की उठ भोर
छिपके खेले मक्के के खेतों में दौड़ दौड़
महुए की मीठाई के कहने थे कुछ और
कल्मी हरा तोड़ खाते डाल पे बैठ बैठ
कोल्हू चला कुओं से खेप भरते थे बैल
थे मेढ़ मिलाकर फसलें सींचते किसान
घट पनघट भर सर पे ले जातीं सुजान
चूल्हे पे कंडों से आग दे धुआं उड़ाती
बिलोती दही छांछ व मक्खन बनाती
जगती दोपहरी कहीं चौपाल नज़र आती
कहीं ठहाकों से भोली हंसी बिखर जाती
मिट्टी के खिलौने बच्चों का खेल थे प्यारा
साग सब्जी से भरा था तबेला औे चौबारा
कैसे पलक झपकते बीत गया वो दौर
सोइं ये यादें कोने में किया ना कभी गौर
वो गरमियां गावों की अब भी भली लगती हैं
हां डिजिटल के जमाने में ज्यादा पिछड़ गईं हैं-
बड़ी उम्मीद लिए
आशा वाली नाव में बैठी थी..
पर वो मुझे निराशा वाले किनारे पर
उतार आयी...
अब इस पार कोई है तो नहीं मेरा..
पर जिस मिट्टी ने पराई हो कर भी
मुझसे माँ सी लाड़ की,,,,
उसे छोड़, आगे बढ़ जाऊँ,,
....
....
नहीं...
ज़रूरतें मेरी,,
इतनी ख़ुद-ग़रज़ तो नहीं...!!
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पर्दे में छुप के हया बोलती है
जुबां नहीं आंखों से बात कहने दे,
ना खोल अपनी बाहें आसमां की तरह
मुझे धीमे-धीमे ही आज बहने दे,
इकरार मेरा दिल भी जानता है मगर
लफ्ज कुछ अनकहे ही रहने दे,
दर्द दूरियों का खूबसूरत नहीं होता
कुछ तो इस नाचीज़ को भी सहने दे,
ना पंख दे मेरे अरमानों को आज
मैं मिट्टी हूंँ मुझे जमीन पर ही रहने दे !
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हज़ारों मील भीतर आग है सीने में मिट्टी के
मगर हैरत वो अपनी कोख़ में सोना उगाती है-
मैं कारीगर हूँ साहब
उंगलियों से उसे गढ़ता हूँ
मिट्टी के हम पुतलों को बनाया उसने
उसे खुद की तरह मढ़ता हूँ,
क्या जाने कब उसकी आंँख खुले
वो एक बार मुझको देखेगा
यही सोचता हूंँ हर दिन मैं
और हर रात उससे लड़ता हूँ,
तन मेरा जो पिंजर हो गया
उसकी बाट जोहते हुए
ना हार फिर भी माना मैं
आज फिर बात पर अड़ता हूँ !
- दीप शिखा
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बारिश की पहली बूँदों से जमीं की सारी तपिश मिट जाती है,
उनकी साँसों की गर्माहट मिलते ही...
मिट्टी की वो सौंधी-सी महक भी इत्र बन जाती है!!!-
सिसक रही मिट्टी पुकारती है,
धरा का ऋण तुम भी उतार दो,
सीमा के जवानों का ही काम नहीं
अपनी गलियाँ ही तुम संवार दो,
देखो गौर से घर की बेटियों को
हर बेटी को वही व्यवहार दो,
छलनी क्यों भारत माँ का आंचल
दुशासन अपने मन का मार दो,
हर गली मिलकर देश बनता है
तुम सुधरो, सारा देश सुधार दो !-