चरित्र बुद्धि से बढ़कर
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ज्योतिर्मय ब्रह्मांड में फैले गहरे अंधकार सा
राख... read more
तुमको बस चाहने भर से कोई क्यूं मिल जाए
ऐसे तो सबकी ही मुट्ठी में ज़माना होता-
ये तो बता जांबाज़ शनावर क्या मिलता है
ख़ुद को किनारे तक पहुंचाकर क्या मिलता है
पूछ रहे हैं अपनी तलाश में फिरने वाले
सबको अपना आप गंवाकर क्या मिलता है
जब भी दर खोलूं एक राह नज़र आती है
इस जीवन में इससे सुंदर क्या मिलता है
होश का भी कुछ दख़्ल यहां दरकार है प्यारे
सिर्फ़ जुनून-ए-शौक़ के दम पर क्या मिलता है
देखो ज़रा ता-हद्द-ए-नज़र और ध्यान से सोचो
जो हासिल है उससे बढ़कर क्या मिलता है
आज भी मिट्टी भीगे तो ख़ुशबू आएगी
धूप में इस एहसास से बेहतर क्या मिलता है
कब तक ताला खोलने में यूं उलझे रहेंगे
आ देखें संदूक के बाहर क्या मिलता है-
जहाँ जाकर सफ़र की कश्मकश ही ख़त्म हो जाये
मैं ऐसी मंज़िलों से ठीक पहले लौट आता हूँ-
जो प्यासे लिख रहे थे जीत का उन्वान पानी में
बहाकर आ रहे हैं अब सर-ओ-सामान पानी में
उठा तूफ़ां तो एक कश्ती सहारा देने आती थी
तभी तैराक जाकर गिर पड़ा नादान पानी में-
उल्लास तो जैसे आसमान में बसा हुआ परियों का देस था मेरे लिये। और फिर नीले चंद्रमा का प्रकाश ओढ़कर इठलाती एक संध्या को तुमने मेरे कमरे में आकर खिड़की बंद कर दी। तुम्हारे पलटते ही हम दोनों मुस्कुराये थे, एक साथ।
तुम्हारे आने से चित्र में नये रंग उभरे हैं। तुम्हारे आने के पहले इन आंखों के जलाशयों में स्वप्न-कमल नहीं खिलते थे। तुम्हारी छवि को संजोकर रखने के पहले इसी मन की देहरी पर एक अकथ्य प्रायश्चित रखा हुआ था। अब होगा पड़ा हुआ, स्मृति के किसी कोने में।
तुम्हारे अधरों से उभरती हुई मृदुल मुस्कुराहट देखकर कभी-कभी सोचता हूँ कि तुमसे अपने निष्क्रिय दुःख कहते हुये रो पड़ूँ।
कितनी मधुर संस्कृतियों की छाँह में तुम पली हो, प्रेयसी !-
इक नदी जंगलों बीहड़ों और पहाड़ों से होकर परेशान गुज़री
इक समंदर है जिसके बिना इस सफ़र को मुकम्मल न मानेगा कोई-