'होली उत्सव'
होली आयी रे कन्हाई
रंग छलके सुना दे ज़रा बाँसुरी
छुटे ना रंग ऐसी रंग दे चुनरिया
धोबनिया धोये चाहे सारी उमरिया
मोहे भाये ना हरजाई
रंग हलके सुना दे ज़रा बाँसुरी-
वृंदावन की कुंज गलिन में,फाग खेलत रसिक साँवरिया
भीग जाऊँ जब तेरे प्रेम में, तो चढ़े न कोई रंग दूजा
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रोज़-ए-कयामत़ तक तुम्हारे दीदार की हसरत है
छूना मना है,बस यहीं तो हमारे इश्क की कसरत है-
शाह गये राजा गये, गये राज दरबार
पर मन ते मोह न गयो, हुई सोच लाचार
जाय तू इतनौ चाह्वै
संग बू कब है जावै-
ब्रज भूमि रसखान की, प्रेम रस की खान।
ब्रज की रज माथे धरूं, रज मलयज के समान।-
म्हे अरज करां हे नीलवरण
गौ पालक हे, हे मधुसुदन
हे त्रिपुरारी ,हे मदन मोहन
हारे को एक सहारो थे
म्हाने कीसो भय जद म्हारो थे
थे ही अब पार लगाज्यो जी
म्हारी नैया फँसी जो बीच भँवर
म्हे अरज करां हे नीलवरण
बरस्यो जद मेघ विकराल सघन
गौवरधन धर लीनो तर्जनी पर
थे ही अब पार लगाज्यो जी
म्हारी नैया फँसी जो बीच भँवर
म्हे अरज करां हे नीलवरण,
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हे ब्रज किशोरी,
इतनी सी कृपा मुझ पर भी कर दो
इस बार मेरी भी होली बरसाने में कर दो....-