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ज़िंदगी एक नग़्मा है, अश्कों में ढलती,
ख़्वाहिशों की शम'अ भी आँधियों में जलती।
मक़सद की रहगुज़र में उलझे हैं क़दम,
क़िस्मत की तहरीरें लफ़्ज़ों से फिसलती।
हर ख़्वाब के पहलू में तन्हाई गहरी,
चमकती हैं आँखें, मगर रौशनी बहरी।
तदबीर की चादर भी छोटी पड़ी है,
तक़दीर की क़िस्तें भी मुश्किल में ठहरी।
मुसाफ़िर हैं सारे, न ठिकाना कहीं है,
सहर भी धुंधलकी, न शामें जहीं है।
रहमत के साए में रह ले जो थोड़ा,
वो ही तो फ़ानी हयात का सुखन है।
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सुनो हरकारा, ये पैगाम उन्हें सुनाकर आना,
जो दिल में बसे हैं, उन्हें एहसास दिलाकर आना।
अगर मुस्कुरा दें तो कहना, मैं इंतज़ार में हूँ,
वरना उनकी कलम से इकरार लिखवाकर आना।
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इक सदा ठहरी हुई, नग़्मों में उलझी शाम है,
रूह-ए-ग़म की चादरों में जल रही इक शाम है।
अनुशीर्षक मे पढ़े...-
सत्यं न गृह्यते दृश्या, न शब्दैः, न लिपिषु लीनम्।
मौनस्य गह्वरे तिष्ठति, यो ज्ञाति, स एव मुक्तः॥-