बर्फ़ की इन चादरों को ,
मैं ज़रा सा ओढ़ लूं।
इस सुहाने पल में बाहें,
मैं भी अपनी खोल दूं।
क़ैद से आज़ाद कर लूं,
अपने दिल को बोल दूं।
चूम लूं उड़ते गगन,
मौसम से मैं कुछ बोल दूं।
उड़ सकूं मैं आज से ,
पंखों को अपने खोल दूं।
बर्फ़ की इन..............!-
कातिब को हर्फ़ भुलाने की बात करते हो.?
आफताब में बर्फ़ जमाने के ख्वाब मुकम्मल नहीं होते !-
रात सर्द फिर हो रही साँस हो रही बर्फ़
फिर यादों की धूप को लगे ढूँढने हर्फ़-
फ़िर से उड़ चला दिल ये बेसबर,
उस कूंचे उस गली, बर्फिले शहर पर।
उड़ चला उड़ चला दिल ये बेखबर,
उस रस्ते उस नगर शिमले दी वो डगर।
पहाड़ों की चौखट वो हवाओं की हरकत,
ठंडी सी बस्ती जैसे ख़ुदा की हो रहमत।
आसमाँ को छूते चीड़ देवदार की हसरत,
सुहाना सा मौसम वो रंगीन रहगुज़र।
कुछ यादें पुरानी वो ख़्वाबों का सफ़र,
पहाड़ों की रानी को फ़िर मिलने है बेसबर।
उड़ चला उड़ चला दिल ये बेखबर,
उस रस्ते उस नगर शिमले दी वो डगर।।-
ठिठुरती..
सिरहन देती..
इन सर्द.. हवाओं का,
हौले से...मुझे छूकर..
यूं ..गुजरना..
जैसे ..कहती हैं..
है हौंसला...
तो ..करो सामना..
तुमको मैं ..यूं...
बर्फ़ बना दूं..
मद्धम -सी आंच में..
'अलाव'..का जलना..
और हौले से ...ये कहना...
ऐसा ही.. तो... है ना..
तेरा प्रेम..
धीमे धीमे ..
सुलगाना..
और...
सुलगते रहना..
मैं प्रेम में हूं...मेरे
मेरा..
मुझसे...ये कहना ..!!
तुम्हारे..वश का नहीं
यूं ..मुझको ..
बर्फ़ ...बनाना ..
सर्द हवाओं से..
मेरा...ये कहना..!!
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' शब्द हैं हाईड्रोजन,
तो भावना प्राणवायु।
विद्यमान हैं दोनों,
स्वतंत्र ब्रह्मांड में,
परस्पर क्रिया रहित।
कवि उपलब्ध कराता है,
माध्यम,प्रशीतक के रूप में,
कल्पना बनती उत्प्रेक,
और आकार लेती है,
कविता ठोस रूप में।'
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गर्म सांसों की तेरी आंच से जल जाने दे
बर्फ़ फ़ुर्क़त में जमी आज पिघल जाने दे-
तेरी गली में चांद निकलता है
मेरे यहां बर्फ़ गिरती है
दरमियां दोनों के सफेदी ही सही
कम से कम एक रंग तो है।-
वक्त ने किया है कतरे-कतरे में तक़सीम...
वरना हम भी कभी बर्फ़ से संगीन हुआ करते थे !!-