आज अपने खेत की ऐसी हालत देखकर किसान का परिवार बहुत रोया है,
क्योंकि उन्होंने आज अपने वर्षभर की थाली का अन्न जो खोया है।-
जहाँ सारे साल इंतज़ार कर फसल जमीन पर लहलहाती है,
बेमौसमी बारिश किसान की ये खुशी भी छीन जाती है।-
देखा है ठूठ हुए दरख़्तों को,
जो तब भी मुस्कुरा रहे थे जब आँधी, बारिश व ओले उन्हें तबाह कर चुके थे।
क्या मुकम्मल बात बोली उन बेरंग से ठूठों ने,
कि तुम मेरी बर्बादी का जश्न मना रहे हो मना लो।
पत्रविहीन तो मुझे होना ही था,
इस तरह एक एक पत्तों को खुद से दूर होते,
दर-दर की ठोकर खाता देख रहा था।
अब सब एक साथ जुदा हो गए, तेज़ झोंकों के साथ शून्य में खो गए।
फिर आएंगे मुझमें नवप्राण, नवकोपल फिर से कोकिला छेड़ेंगीं मधुर तान।
फिर सब मेरा आश्रय लेंगे, फिर मुझको निहार आह्लादित होंगे।-
जब सब वही किताबें पढ़ते हैं
बचपन से किस्सों में भी सुनते हैं-
कि कर्मों से ऊंचा उठना है,
अच्छा होना ही बस होना है!
फिर, अच्छाई..... जिसके लिए
लाखों करोड़ों बीज पड़ते हैं
सब कहते हैं- हम अच्छाई ही बोते हैं..
बाद में कीड़े लगी फसल क्यों ढोते हैं!
क्या बीज ही खराब डाले थे?
माली आलसी था, या कमजोर निकला?
धूप नहीं मिली, पानी ज्यादा हो गया?
या खाद असल में खाद थी ही नहीं!
ये नैतिक शिक्षा की कमी है
या ज़िंदा उदाहरणों का अकाल?
गरीबी से लड़ते महाप्राण निराला
यकीनन प्रेरणा दे जाते होंगे
लेकिन प्रेरणा हार जाती है आखिर में
गली के आखिरी मकान की चमकदमक से...
और हार जाती हैं वे सारी कहानियां
जो हमने बचपन में पढ़ी थीं
झुठला जाते हैं वे सारे आदर्श-
ईमानदारी, सच्चाई, प्रेम, कर्तव्य
संस्कार, संस्कृति, शौर्य, संघर्ष!
(अधूरी कविता...)-
इतना सब होने के बावजूद वह हार मानता है नहीं
खुद खाये सुखी रोटी, बड़ों के घर कमी नही होती-
बीन मौसम की बरसात थी वो,
मैं फ़सल की तरहा था,बर्बाद हो गया..-
फसल का कोई दाम ना मिलने पर,
जब चलता है ट्रैक्टर हरी भरी फसल के ऊपर,
तो हैरो के नीचे कट जाती हैं, हरी सब्जियां
और उसके साथ ही कट जाते हैं, जमा पूंजी और मेहनत भी और मिट्टी में पिसकर खाद बन जाता है
उसके भरोसे और हिम्मत का।
फिर किसान घर ढोकर ले जाएगा!
कर्ज, गरीबी और लाचारी की फसल।
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चिंताओ की लकीरें माथे किसान उभरने लगी
बेसमय बारिश जो अरमानों को डुबोने लगी-
फिर फिज़ा धुधलाई आसार है बारिश और तूफ़ान के
पड़े है फ़सल अभी भी हमारे खेत - ए - खलिहान के।-
यें बेवफ़ा ठहरी कहाँ जमीं से वफ़ा करेंगी,
देर से आयी बारिशें जाने क्या - क्या तबाह करेंगी...
बहा लेजाये बादलो को तो नसीब है मेरी फसलों का,
हाथ में सब कुछ उसके है अब जो करेंगी हवा करेंगी...
आसमान की उस ओर टकटकी लगाये बैठा वों किसान,
प्रकृति की देवी कभी तो मेरे हाल पे दया करेंगी...
यें खुद ही बेहाल सी है गिरती बूंदे मेरे आँगन की,
इनसे क्या उम्मीद करू,मेरे लिये दुआँ करेंगी...-