संदीप डबराल 'सैंडी'(शून्य)   (✍ संदीप डबराल 'सैंडी')
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Joined 15 October 2019


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Joined 15 October 2019

हज़ारों इश्क़ की कहानियाँ यों ही सिमट गईं
न जाने कितने ही करों¹ की याँ नसें भी कट गईं

कहीं हज़ारों चिट्ठियों से कुछ नहीं हुआ है तो
कहीं कुछेक उल्टियों से बाजियाँ पलट गईं

वो एक शख़्स अपने साथ रौनक़ें भी ले गया
लबों पे ख़ामुशी गले उदासियाँ लिपट गईं

क़रीब आने से मिज़ाज सबका ही बदल गया
घरों से याँ अमीरों की हवेलियाँ जो सट गईं

कहा कि नेटवर्क मसअला है बात कटने का
कि घंटों होने वाली बातें मिनटों में निपट गईं

असर भी हिज्र का हुआ है तो हुआ है इस तरह
कभी न पटने वाली याँ ख़मोशियाँ भी पट गईं

निकालने से भी नहीं निकाली जा रही हैं अब
कि यादें ज़ेहन में हमारे जोंकों सी चिपट गईं

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उस गुल से अपना घर महकाना है
चाहे दुनिया से बगावत हो जाए

(पूरी ग़ज़ल अनुशीर्षक में पढ़िए)...

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चराग़ों से सबा¹ की तुम रवानी² यार मत पूछो
तवाइफ़³ से यहाँ उसकी जवानी यार मत पूछो

मुलाज़िम⁴ एक सरकारी मुहब्बत ले गया याँ सो
अलम⁵ जानो हमारा और कहानी यार मत पूछो

पुराने ज़ख़्म सुनते ही हो जाते हैं तर-ओ-ताज़ा
सो सब कुछ पूछो पर बातें पुरानी यार मत पूछो

हर इक की नज़रों में रहता है ये दिल का ख़ज़ाना याँ
सरल नइँ है हिफ़ाज़त पासबानी⁶ यार मत पूछो

ग़ज़लगोई है कारोबार केवल याँ ख़यालों का
फ़क़त⁷ ग़ज़लें सुनो 'इल्म-ए-म'आनी⁸ यार मत पूछो

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युद्ध और प्रेम
दोनों शब्द अढ़ाई अक्षर के हैं
किंतु इनके मध्य अंतर कल्पना रहित;

क्योंकि...
जहाँ युद्ध सभ्यताओं का अंत करता है,
तो वहीं 'प्रेम' सभ्यताओं का प्रादुर्भाव।

अतएव
प्राणी हित हेतु
प्रेम का उद्वर्धन अति अपरिहार्य है।

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पूरी ग़ज़ल अनुशीर्षक में पढ़िए...

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प्रेम के लिए
दो प्रेमियों का मिलन
उतना ही नितांत आवश्यक है;

जितना किसी
विलुप्त होती प्रजाति के
अंतिम सदस्यों का मिलना,
ताकि उन्हें संरक्षित कर
बचाया जा सके समाप्त होने से।

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तिफ़्ल¹ थे जब हम हमारे दिल पे इतने पर्दे नइँ थे
याँ सभी कुछ था मगर चेहरे पे इतने चेहरे नइँ थे

नौकरी से पहले बिल्कुल मामला था याँ बराबर
वो भी इतने महँगे नइँ थे हम भी इतने सस्ते नहँ थे

तान के सीना चला करते थे हम भी याँ सर-ए-रह²
काँधे ज़िम्मेदारियों के जब हमारे बस्ते नइँ थे

हम कहीं भी आया जाया करते थे बे-फ़िक्र हो के
कमसिनी³ के वक़्त तो नज़रों के इतने पहरे नइँ थे

आज छोटी-छोटी बातों से आ जाती हैं दरारें
बालपन में दोस्ती के रस्ते इतने कच्चे नइँ थे

रंज⁴ है बेहद किसी ने थोड़ी कोशिश भी नहीं की
ज़ख़्म हल्के-हल्के ही थे सारे इतने गहरे नइँ थे

हम बड़ी संजीदगी⁵ से पेश आते थे सभी को
हिज़्र⁶ में पागल हुए हैं क़ब्ल⁷ ऐसे हँसते नइँ थे

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कहानियों में जीवन जीने की चाह रखने वाले
अक़्सर चंद क्षणिकाओं में ही समाप्त हो जाते हैं।

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बहर :- रमल मुसम्मन महज़ूफ़
अरकान:- फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन
वज़्न :- 2122 2122 2122 212

आजकल उनसे मिरा मिलना तो हो पाता नहीं
पर गुज़ारा करता हूँ मैं चूम कर तस्वीर को

पूरी ग़ज़ल अनुशीर्षक में पढ़िए...👇🏻

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कभी-कभी
हम प्रेम को नहीं,
प्रेम हमें खोजता है!

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