Shubhankar Sharma   (Shubhankar Thinks)
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शून्य की ओर
Joined 17 November 2017


शून्य की ओर
Joined 17 November 2017
13 AUG 2021 AT 18:25

ठहर जाओ ऐसे जैसे हमेशा से थे ही वहीं,
गुजर जाओ ऐसे जैसे कभी वहाँ थे ही नहीं|

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16 JUL 2021 AT 11:42

नया रखोगे कहाँ ज़नाब अगर पहले से भरे पड़े हो?
कहीं ख़र्च हो लो, कुछ तो ख़ाली जगह बनाओ।

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20 JUN 2021 AT 6:38

हमारी अधिकतम जीवन ऊर्जा नियंत्रण में समाप्त हो जाती है,
आप लोगों को, चीजों को, परिस्थिति को,
व्यवस्था को अनेकों उपाय से नियंत्रित करना चाहते हो।
ये प्रयास पूरे जीवन भर होता है,
नियंत्रण तो कभी पूर्ण नहीं हो पाता है मगर आप
स्वयं के लिए क्रोध, घृणा, दुख, अहंकार और मानसिक अवसाद अवश्य उत्पन्न कर लेते हो।
फिर एक दूसरी यात्रा प्रारंभ हो जाती है,
जो वासना आपने दूसरों को नियंत्रित करने के चक्कर में स्वयं के लिए बना ली हैं,
अब आप उन सबको भी नियंत्रित करने में लग जाते हो।
इस प्रकार से आप अपने ही जाल में स्वयं फंस कर रह जाते हो।

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17 JUN 2021 AT 9:22

जो सत्य समझाया नहीं जा सकता है, उसे शब्दों में बांधकर मन को राजी कर लेने की युक्ति का नाम परिभाषा है।

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27 MAY 2021 AT 8:03

फिर एक दिन ऐसा भी आयेगा,
जब आपको दो और दो चार कहने में हिचक नहीं होगी।
आप लंबी सांस भरके उन सबके मुँह पर कह दोगे कि,
पाँच और छः का नाटक आपको मुबारक, मैंने जाना है कि दो और दो चार होते हैं।
उस दिन आपको यह डर नहीं रहेगा कि अगर मैं अकेला पड़ गया तब क्या होगा,
तब आपको पहली बार दिखाई पड़ेगा कि आसमान इतना बड़ा कैसे है,
मेरी जहाँ तक नज़र है सब जगह दिखाई दे रहा है,
आप देखोगे की कैसे सूरज डूब रहा है सचमुच में,
अब ये कोई सुनी हुई सौंदर्य कविता की बात नहीं रही।
आप जानोगे की हवा दिखती नहीं है फिर भी गुजर रही है तुमसे छूकर,
आप देख पाओगे कि जरा सी हवा चलने पर नाचने लगते हैं पेडों पर लगे हुए पत्ते।
आप जानोगे कि एकांत अब अकेलापन नहीं है,
मनुष्यों की भाषा के अलावा भी जीव जंतुओं की आवाजें शोर कर रही हैं,
अब आप जानोगे की शांति प्रकृति में है ही नहीं
तो फिर उसे प्राप्त करने के प्रयास सब व्यर्थ ही हैं।
अब आप पाओगे कि एलईडी की रोशनी में सब चकाचौंध हो गया है,
इसलिए आप बत्ती बन्द करके देखने लगते हो चाँद और तारे।
एक दिन आप देखोगे सब वैसा, जैसा वो है,
आप पाओगे कुछ भी नहीं बदला मगर सब बदल गया।

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18 APR 2021 AT 21:39

कुछ बन जाने में एक चुनाव है, जिसके बाद इंसान कुछ और नहीं बन पाता,
मगर कुछ ना बनने में, सब कुछ बन जाने की संभावना होती है।

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18 APR 2021 AT 21:32

जो खुद के साथ कभी बुरा ना करे,
केवल वही दूसरों के लिए कुछ अच्छा कर सकता है।

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14 APR 2021 AT 9:25

बंद आँखों से "मैं" का जब पर्दा हटाया,
कहने और करने में बड़ा फ़र्क पाया।
सब समझने के वहम में जीता रहा "मैं",
सच में समझ तो कुछ भी नहीं आया।
रहा व्यस्त इतना सच्चाई की लाश ढोने में,
कि जिंदा झूठ अपना समझ नहीं आया।
कारण ढूँढता रहा हर सुख दुख में,
अकारण मुझे कुछ नज़र नहीं आया।
ढूँढता रहा सब जगह कुछ पाने की ललक से,
जो मिला ही हुआ है वो ध्यान में ना आया।
फँसता गया सब झंझटों में आसानी से,
सरलता को कभी अपनाना नहीं चाहा।
झूठ ही झूठ में उलझा हुआ पाया,
आंखों से जब जब पर्दा हटाया।

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3 APR 2021 AT 10:56

जीवन अगर सागर है तो
शरीर किनारे से कर पाता है स्पर्श सतह को,
भाव दो चार डुबकी लगाने तक सीमित रह जाते हैं,
आत्मा डूब सकती पूरा का पूरा,
आत्मा तैर सकती है सागर के अंतिम छोर तक।

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18 MAR 2021 AT 18:56

जीने के प्रयास जितने भी हो तमाम किए जाएं,
खत्म होने के लिए पहले से इंतजाम किये जाएं।
जोड़ा जाए जिन्दगी को सभी तरकीबों से,
वहीं ख़ुद को मिटा देने वाले काम किए जाएं।
बूंद बूंद समेटा जाए तजुर्बा सब किस्म का,
वहीं कतरा कतरा ख़ुद को बे नाम किया जाए।
भिड़ जाओ हर मुश्किल से बेवक्त यूं ही,
कभी फुर्सत में ख़ुद से ही संग्राम किए जाएं।
बाहरी जरूरत में बन जाओ पैसों के इबादी
मगर अंदर के सारे रकबे बे-दाम किये जायें।
मतलब ढूंढ़कर तुम करते ही हो सब कुछ,
कुछ बेमतलब के भी दो चार काम किये जायें।
अंदर बहुत दबा लिया ख़ुद को समझदारी में आकर,
अब पागलपन के सब लम्हे खुलेआम जिये जाएँ।
बहुत जी ली जिंदगी दूसरों को दिखाने के मकसद से,
अब कुछ किस्से जिन्दगी के गुमनाम जिये जाएँ।
दिमाग रख लेता है हिसाब हर एक चीज का,
अब हिसाब किताब सारे बेलगाम किये जायें।
जीना की तरकीबें जितनी भी हों सारी अपना लो,
मगर साथ में मरने के भी पूरे इंतेजाम किये जायें।

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