बच्चे आज भी जमा होते हैं पार्क में
मगर नहीं आता वो कहानी सुनाने वाला।
कहानियों को खत्म होना होता है।-
"तेरे होने के... अब भी कुछ निशान बाकी हैं"
मेरे बदन पर, तेरी छुअन के निशान बाकी हैं
मेरे बालों पर, तेरी उंगलियों के निशान बाकी हैं
मेरे कांधे पर, तेरी ज़ुल्फों के निशान बाकी हैं
मेरे पैरों पर, तेरे कदमों के निशान बाकी हैं
मेरे गालों पर, तेरे होठों के निशान बाकी हैं
तेरे होने के, अब भी कुछ निशान बाकी हैं
लकड़ी की उस बैंच पर, हमारे मिलन के निशान बाकी हैं
उस आईसक्रीम स्टॉल पर, हमारे पिघलने के निशान बाकी हैं
उस सिनेमाघर में, 'एक स्ट्रॉ से पीने' के निशान बाकी हैं
उस पार्क की गीली घाँस पर, तेरी-मेरी साँस के निशान बाकी हैं
मेरी रूह में, तेरी मदहोशी के निशान बाकी हैं
तेरे होने के, अब भी कुछ निशान बाकी हैं...
- साकेत गर्ग 'सागा'-
पार्क वाली गली से गुज़र के जो वो जाती है
आँखें उसको देख कर बाग़ बाग़ हो जाती हैं
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आज फिर वो अजनबी आँखें उन दोनों को घूर रही थी। महिला कभी अपने दुपट्टे को ठीक कर रही थी तो कभी अपनी बच्ची के स्कर्ट को खींच कर लंबा करने की कोशिश। पिछले दिनों के समाचारों ने उसके मन में डर भर दिया था। उन बूढ़ी आँखों ने उसके चेहरे का डर पढ़ लिया। वो उठ कर चला गया। उसकी जेब से कुछ गिरा था। बच्ची ने देख लिया और दौड़ कर उठा लायी। वो उस बूढ़े का वॉलेट था। महिला ने उसे खोला। उसमें एक महिला और एक बच्ची की तस्वीर थी जिनके चेहरे इनसे मिलते जुलते थे। महिला को याद आया पिछले महीने एक पुल के नीचे दबकर एक महिला और उसकी बच्ची की मौत हो गयी थी। डर संवेदना में परिवर्तित हो गया। अगले दिन से पार्क में दो नहीं तीन लोग एक साथ खेला करते थे।
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ज़िंदा हूँ
ये खुद को एहसास दिलाता हूँ
सूखते ज़ख्मो को
ज़रा कुरेद डालता हूँ
(Poem in caption)-
फ़लक पर धूप सजी है
ठिठुरती ज़िन्दगी खिली है
किलकारियाँ फ़िज़ा में है
अनुभवों की लगी गोष्ठी है-
तुम वाकई महान हो।
खुशियों का भंडार हो।जब कभी मन
उदास होता है।तुम्हारे दामन में बड़ा
सुकून मिलता है।बच्चों को तो
तुम्हारी गोद मे जाकर अपार खुशी
मिलती है।दुःख इस बात का है
कि इन दिनों तुम अकेले विरान
पड़े हो।-
लगता ये है ,
बाहर खेलें, पार्क कहांँ हैं ?
पार्क में गाड़ियांँ खड़ीं अवैध,
बचपन रह गया घरों में कैद।-
वो बस आठ साल की छोटी सी लड़की थी, रोज़ अपने दादाजी के साथ शाम को पार्क में टहलने जाती। उसके दादाजी भी बहुत संस्कारों वाले सज्जन व्यक्ति थे। रोज़ दादा-पोती ख़ूब ढेर सारी बातें करते। दादाजी उसे रामायण महाभारत की कहानियाँ सुनाते हुए जीवन के पाठ पढ़ाते।
उस दिन भी दोनों टहलते हुए पार्क जा रहे थे कि लड़की ने दादाजी से पूछा, "दादा जी ऋण क्या होता है?"
दादाजी ने कहा, "ऋण का मतलब क़र्ज़; जैसे कि तुम्हें पाँच रुपए की ज़रूरत है, और तुम्हारा कोई दोस्त तुम्हें वो पाँच रुपए देता है तो वो तुम्हें ऋण देता है और जब तक तुम उसके रुपए न लौटाओ तुम उसकी ऋणी होती हो।"
फिर बात को आगे बढ़ाते हुए दादाजी ने कहा कि सबसे बड़ा ऋण माता पिता का होता है क्योंकि वो तुम्हें इस दुनिया में लाते हैं, पाल पोस कर बड़ा करते हैं।
लड़की ध्यान से सब बातें सुन रही थी। वो लोग बातें करते हुए पार्क तक पहुँच चुके थे। तभी दादाजी ने अपने हाथ में पकड़ा प्लास्टिक का थैला सड़क के किनारे पड़े कूड़े के ढेर पर फेंक दिया।
लड़की ने पूछा, "पर दादाजी धरती का ऋण? उसका क्या? ये धरती हमें इतना कुछ देती है, पर हम उसका ऋण कैसे चुकाते हैं?"
रोज़ दादाजी अपनी पोती को ज्ञान सिखाते थे, पर आज उनकी पोती ने उन्हें बहुत बड़ा पाठ पढ़ा दिया था। दादाजी ने चुपचाप प्लास्टिक सड़क पर से उठा ली।
-सारिका सक्सेना-