पतझड़ भी हिस्सा है जिंदगी के मौसम का
फर्क सिर्फ इतना है
कुदरत में पत्ते सूखते हैं हकीकत में रिश्ते
तेरी यादें जैसे मौसम-ए-पतझड़..
जब भी आती है बिखेर देती है मुझे..-
जैसे पतझड़ में सूखे पत्ते झड़ने पर
ठूँठ अकेला रह जाएगा पीछे
मैं रहूंगी बिन आत्मा के इस तन में....
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एक पतझड़ लगी है दिल में
रहता है अब भी मुश्किल में
चिल्लाता है क्यों तू मुझको
जब बोलता नहीं महफ़िल में
टूट कर बिखर जा मुझे क्या
लिखा है यही मुस्तकबिल में
रूठना मत इस से "आरिफ़"
काम आएगा यह मंज़िल में
"कोरा काग़ज़" लेकर जाना
रोश़नाई देगा यह बिस्मिल में-
मन कुछ अपने को ऐसा हल्का पाये
जैसे कंधों पे रखा बोझ हट जाये
जैसे भोला सा बचपन फिर से आये
जैसे पतझड़ में सारे ग़म झड़ जाये-
टूटे-टूटे लगते हो...
सूखे- सूखे जज़्बात से लगते हैं,
बिखरे-बिखरे बैठे हो
क्या पत्तों जैसे.. हालात से लगते हैं,
अच्छा.. थोड़ी सी कोशिश कर हम
क्यूँ ना फ़िर जीवन की शाख़ पे लगते हैं,
अरे.. पतझड़ अंत नहीं जीवन का
चलो.. फ़िर शुरुआत से लगते हैं..!-
टूटना भी कितना खूबसूरत है.. है ना...,
अब वो चाहे आसमां से बहती टिप टिप बारिश की बूँदें हों या.. पतझड़ में टहनियों से टूटते.. झड़ते पत्ते.. स्याह रात में टूटा कोई तारा हो.. या नयनों से बूँद बूँद अश्रु बहाता टूटा हुआ दिल,
प्रकृति हर शय के मिलन औऱ बिछुड़न को खूबसूरत बनाती है.. उसे जोड़-तोड़कर उसे औऱ भी अधिक निखरने का मौका देती है,
टूटना... टूट कर बिखर जाना
अपने अस्तित्व को खो देना.. यूँ तो मृत्यु समान है...
मगर टूटकर.. फ़िर अपने उसी स्वरूप में लौट आना
बस.. इसी का नाम ज़िन्दगी है!-
पतझड़ है, औऱ ख़ुशनुमा, हालात यह,
झड़ जाएं गे, तेरे भी, ख़यालात यह,
पऱ ईक पत्ता है, अड़ा है, इस बात पे,
कोपलें, मेरी ही होंगी, फ़िर शाख़ पे.....!-
पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं
वो बहारों के आने से खिलते नहीं
कुछ लोग एक रोज़ जो बिछड़ जाते हैं
वो हज़ारों के आने से मिलते नहीं
उम्र भर चाहे कोई पुकारा करे उनका नाम
वो फिर नहीं आते...-
चहुँओर है बिरानापन ।
साथ हैं साथी सब जीवन में ,
फिर जीवन मे है क्यूँ अकेलापन ।-