संत कबीर की पगड़ी
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पगड़ी बाप की माथे नहीं,सिरहाने रखा करो
शायद कोई ख़्वाब इक रोज़,तजुर्बा दे जाये!
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एक रस्म शादी की ऐसी भी निभाई जाय
न इज्जत दाँव पे हो न पगड़ी उछाली जाय
दुल्हन से चिपका 'दहेज' शब्द ही मिटा दी जाय
और थोड़ा स्वाभिमान दूल्हे में भी जगा दी जाय-
"भाग कर" शादी कर ली उसने
अपनी दुनियां में खुशहाल बस गई,
एक पल भी ख्याल ना आया
पीछे कितनी ज़िंदगियाँ उजड़ गईं,
यूँ तो बांधता भी नही था "पिता" उसका
जो "पगड़ी" बाज़ार में उछल गई...-
🐾'मंजिल में मिलेगी तुझे आंधी,तूफ़ान और मुसीबते तगड़ी,
ए मुसाफिर तू हँस के सामना कर बाँध के साहस की पगड़ी।'💪
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जित बचपन बीता,
आज वा माटी घणी याद आवे स।
वे खेत, वे जोड़,
जणू गीत वफ़ा के माँग स।
वो गीत चाची- ताईया के,
जनु रस काना म घोल स।
वा पिण्डी चुर्मा की,
जणू स्वाद दादी के हाथा का दिलाव स।
वो शर्माना बीरा का,
जणू शर्म आँखा की बताव स।
वा पगड़ी बापू की,
मन मान का मतलब समझाव स।
इसलिए कोणी झुकती र लोगों म,
या हरयाणा की माटी मन मेहनत का पसीना बहाना सिखाव स।
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धन दौलत के पुजारी घर छीन ले गये गरीब का
दस्तार रख दी उनके पॉव तले अहंकारी न टूटा
बच्चों का रुदन उजाड़ पड़ी खोली देख ह्रदय डोला
करे क्या गरीब बेचारा डाल गले मे फंदा रस्सी पे लटका-
...बड़ा अजीब दस्तूर है इस दुनिया का,
यहां काम निकलते ही लोगों को औकात बताई जाती है।
@nurag-
जब भी निकलती है
वो कयामत ढाती है !
कभी घूंघट सर पर
कभी पगड़ी लगाती है !!
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वफ़ा भी बेवफाई में बदल जाती है
जब बाप की पगड़ी की कीमत समझाई जाती है।-