दीवारें बोल सकतीं
तो कहतीं
रक़ीब मानकर
जिनकी करते हो बुत परस्ती
उस मोहब्बत के लिए
वो रहीं उम्र भर सिसकती.-
बिछड़ कर तेरी याद में हम आंसू बहा लेते है,
पर तेरे अश्क़ भी मेरे नसीब में नही!
दीवार पे टंगी तस्वीरे जवाब नही देती।-
रात जब थोड़ी
गहरा जाती है,
दीवारों पर अजनबी सी
परछाईयाँ उभर आती हैं।
कुछ मिलती हैं तुमसे
कुछ मुझसे मेल खाती हैं।
आती हैं करीब
जब मिलने को दोनों,
उगता है सूरज कहीं
और दोनों बिछड़ जाती हैं।।-
जानते हो...
मेरा कमरा वीरान हो चुका है..
भरा पड़ा है पूरा दीवार सीलन से!!
पता है??
ये दीवारें भी चुपके -चुपके...
रोती है!!
-
चेहरे पे अब झुर्रियां पड़ने लगी हैं पिता के
शायद घर की दीवारों में दरारें आने लगी हैं।-
फिसलन बनी रहती है तेरे घर में आजकल
ये दीवारें रात भर तेरे आँसू पोछती नही हैं।-
दीवारों सा ऊँचा
ना अहम् कर ज़ालिम,
किसी की छत
किसी का फ़र्श भी होती है-
इतना ही नहीं चाहता कि बस एक पहचान बन जाए
तो अच्छा है
मेरी मेहनत कहती है हर दीवार-ओ-जुबां पर बेनाम बन जाए
तो अच्छा है-
महलों की दीवारों से बेहतर और कौन जानता हैं कि जब आसमान में तारे चमकते हैं ,
तब उन दीवारों के अंदर जो अंधेरा होता हैं
वह कितना भयानक और डरावना होता हैं |-