झूठा दिलासा
2002 में जब मैं 8 साल का था तो कविता लिखने का बहुत शौक था। हमेशा रफ़ कॉपी के आखिरी पन्ने पर कविता लिखता था। उस समय व्हाट्सएप्प, फेसबुक, और योरकोट जैसा कोई माध्यम नही था। इंटरनेट का प्रयोग भी सीमित लोगो तक ही था। फिर 2003 में मेरी वो रफ़ कॉपी एकदिन चोरी हो गई। मैंने पिछले 15 सालों में बड़े मंच पर जितने भी बड़े कवियों को सुना है, हमेशा लगता है कि ये सबलोग मेरी कविताओं को ही चोरी करके सुना रहे है।
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भाग 2
किसी के ना होने की वजह से हमारे जीवन में एक ऐसा दौर आया जिसमें अकेलापन को दूर करने के लिए खुद से बात करना शुरू किया।
अब आप पूछेंगे खुद से कैसे बात करना शुरू किया तो मैंने एक उपाय निकाला हमने दूसरी व्हाट्सएप बना ली अपनी दूसरी नंबर से भी उसके बाद एक दूसरे व्हाट्सएप से खुद को मैसेज किया और इसी तरह बात खुद से करना शुरू किया और अपने अंदर के अकेलापन को खत्म किया...-
एक दिलासा और दे दिया, मैंने मेरे थके दिल को आज
उदास हो गया था कम्बख़्त, कुछ देर मुस्कुराने के बाद
- साकेत गर्ग 'सागा'-
मैं अपने दर्द को दिलासे की दवा देकर आया हूँ,
मैं ठीक हूं, माँ से फ़िर झूठ बोलकर आया हूँ..!
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यदि आप किसी इंसान को पसंद नहीं करते उसके व्यवहार और विचारों को पसंद नहीं करते हैं, तो मना कर दीजिए। और उससे बोल दीजिए की हम आपको पसंद नहीं करते हैं।।
किसी को झूठी दिलासा देना....
यह तो अच्छी बात नहीं है ना...!-
याद है तुम को!!
वो प्रेम-उपवन... "प्रतीक्षा" का,,,,
जो तुमने उगाया था...जाते जाते...
तुम्हारे और मेरे दरमियाँ,,,,
अब... सूखने लगा है...
बादल दिलासे के तुम्हारे अब
बरसना जो बंद कर दिये हैं..... और
सिर्फ़ मेरी उम्मीद की बारिश
कब तक रोक पाएगी इसे
बनने से...
"मरुस्थल".....!!??
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अक्सर मुझे वो ढूंढती है अपने रकीब में
फ़िर ख़ुद को देती है दिलासा कि ये बेहतर है
तो फिर मुझे ढूंढती ही क्यों है-
मैं टूट भी
चुका था,
बिखर भी
चुका था,
थक भी
चुका था,
और ठहर
भी चुका था,
फिर इक
रोज़ मेरी
बदनसीबी
ही मुझको
दिलासे देने
आ गयी!!!-