चादरों को खींच कर धागा नही किया जाता...!!
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दहकते अंगारो से प्रीत निभाया करता हूँ,
ख़्वाब जलाकर मैं रोज़ उजाला करता हूँ!
एक झलक की ख़्वाहिश लेकर मुद्दत से,
मैं बादल में रोज चाँद निहारा करता हूँ!
एक लहर आती है बह जाता है सबकुछ,
रेत पर जब जब महल बनाया करता हूँ!
असआर मेरे आबाद हुए, एहसान है तेरा,
मैं ग़ज़लों में तेरा अक्स उतारा करता हूँ!
मेरी बेदाग उल्फ़त पर हँसते हैं लोग यहां,
क्योंकि आसमाँ सी हसरत पाला करता हूँ!
अक्सर सरे आम नंगे हो जाते हैं पाँव मेरे,
जब जब चादर से पांव निकाला करता हूँ!
मत पूछ "राज" से यूँ मोहब्बत की बातें
याद में तेरी मैं ऐसे वक्त गुजारा करता हूँ! _राज सोनी-
हृदय में
"निष्कामता"
के अभाव में
वाणी व विचार से
'आध्यात्मिक' उपदेश
व प्रवचन करना
बिल्कुल वैसा ही है
जैसे उपदेश करते वक्त
सीताराम सीताराम
राधेश्याम राधेश्याम
लिखी चादर ओढ़ लेना
और फिर......
उपदेश समापन पर
उतार देना !!!
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उसने अपने जिस्म के जख्मों को तो छुपा लिया ।
चादर की सिलवटें ने रात की असलियत बता दी ।-
सीधी जिंदगी को अब मोड़ना चाहता हूं,
तेरी यादों का शीश महल तोड़ना चाहता हूं।
तेरी कसमों ने अपने पाशो में बांध रखा है,
जिस्म को अपने कबका छोड़ना चाहता हूं।
अपने प्रेम में मेरी अंतिम इच्छा बाकी है जान,
अपनी कब्र पर तेरे हाथों से चादर ओढना चाहता हूं।
तेरे आफ़ताब जैसे जिस्म को दाग़दार न किया,
तेरी रूह से अपनी रूह का रिश्ता जोड़ना चाहता हूं।-
समेट लेते हैं खुद को हालात के मद्देनजर,
हाँ मेरे पैर अपने चादर की हद जानते हैं !-
जब- जब,,,
सर्द हवाओं के डर से
चादर को बाहों में
जकड़ता हूं ।
तब- तब,,,,
तेरी यादों की पकड़ और
मजबूत होती जाती है।-
चाँद के चरख़े पर .. रात भर
उजले हुए .. सारे रंगों के सूत कात कर
मेरे जीवन की .. सफ़ेद चादर पर
माँ ने कशीदे काढ़े .. जी भर
बाबा बताना भूल गए .. अँधेरे में बने वो धागे
पक्के थे रंग के इतने .. हर रंग लगा निकलने आगे
पर चाँद ने हर रंग में .. घोले थे पक्की सफ़ेदी के उजाले
जीवन रंगीन रहता कब तक .. अँधेरों में बने थे जब धागे-
हवा बहा रखी है आदर जैसे,
सड़क बिछा रखी है चादर जैसे।
ज़िंदा रखी हुई है, पेटों में यूँ,
शमा जला रखी है कादर जैसे।-