एक मुक्तक
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शताधिक चन्द्रमाओं को करे लज्जित कलाओं से
तुम्हारे केश ये काले घने........ काली घटाओं-से
तुम्हारे सिक्त अधरों पर हृदय-सम तीव्र कम्पन है
मनोहर है लटों का यूँ...... झगड़ना भी हवाओं से-
ऐसा क्या कह दूँ इस पल मैं तुमसे कि ये आखिरी मुलाकात आखिरी न रहे....
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कला हर कलाकार की आत्मा होती है
अपनी कला का त्याग जीते जी मर जाने जैसा है .....
उस दिन के बाद मैंने कभी घूंघरू नहीं पहने....-
गमों में मुस्कुराना सीख लो
दर्द को आंखो में छुपाना सीख लो
गैरों को अपना बनाना सीख लो
ज़िंदगी जीने कि कला सीख लो-
कितना भी तोड़ो
हमे टूटकर जुड़ने की कला
आती है,
हम तो माटी के पुतले हैं
हर रुप में हर सांचे में
ढल के निखरने की कला
आती है।-
"गुजर गया मक्खन का दौर, मशीनों में दही देखता हूं।
खत्म कहां जिजीविषा मेरी,लकड़ियों पे हाथ सेकता हूं।
मौकापरस्त कहां मै, मेहनत ही बेचता हूं।
कद्र कला की नहीं, तभी तो सरेराह बैठता हूं...।"
#क्या_साहेब...-
किसी ने सच कहा है के ,जीवन जीना एक कला है
और हम सभी इंसानों में, एक कलाकार जन्म से पला है
अदृश्य हैं ,अजन्मा है, अमर है बस जिसने पहचाना
वो सूरज सा चमका है, अन्यथा गुमनामी में ढला है।।
सफल वहीं हुआ है जो हमेशा कांटो पर चला है
दौड़ धूप कर चट्टानों से लड़ा है, भरी दोपहरीें जला है
इतना आसान नहीं है सफल होना , सफल वहीं हुआ
जिसके जिगर में कुछ, कर गुजरने की ज्वाला है।।
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