"अतिथि देवो भवः"
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विषय: "अतिथि देवो भवः"
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जिस प्रकार
जग में प्रकाश होने पर
परछाई उत्पन्न होती है
आदर सत्कार होने/करने पर
सुंदर वातावरण का विकास होता है
उसी प्रकार
मन में प्रभु राम का वास होने पर
देह से रावण/द्वेष का नाश होता है
पुलकित पुष्प सा कल्याणी बनने पर
भारतवर्ष में "अतिथि देवो भवः" का सद्भाव होता है-
घर आए हैं मेहमान,अतः समक्ष नहीं आती कविता
प्रश्नों की बौछार लिए,मेरे संग संग घूम रही कविता ।
गमले के फूलों में अपना रंग भरती थी मेरी कविता,
मुरझाए फूलों संग ही लगता ,मुरझायी मेरी कविता।
मेज़बान,अभ्यागत के ठहाकों में है बेकल कविता
कभी झरोखे कभी पर्दे से सिसकती झांँक रही कविता।
सदैव रसोईघर में आकर बतियाती थी जो कविता
आज बघार,उबाल में है अपना रोष दिखाती कविता ।
निहारा करती थी प्रकृति को सुबह साँझ मेरी कविता,
आवभगत की देख व्यस्तता है मुझको घूर रही कविता।
'अतिथि देवो भव'की कुछ तो लाज धरो कविता,
महामारी का भय दिखाती उपदेशक बन जाती कविता।
लिपटती थी बिस्तर पर किलकती बच्ची सी जो कविता
आँखों की कोरों पर बूँदें थामे सो जाती है मेरी कविता ।
-रेणु शर्मा-
अतिथि आएं हैं घर तो आदर सत्कार करो
भोजन परोसो और उनकी मन से सेवा करो
भारत देश में मान्यता है कि अतिथि देवो भव
तो कोई कमी न रहे इस तरह खातिरदारी करो।।
पर अतिथि गर अतिथि जैसा व्यवहार करे तो अच्छा लगता है
घर में मामलों में बोले कुछ तो तन-मन गुस्से से लाल होता है
आपका काम है घर पधारे और सेवा का आनन्द लें
हमारा काम हमें बखुबी पता है इसलिए हमसे पंगा न लें।।-
अहद-ए-नौ में मेहमान-नवाज़ी की बात नहीं है,
ख़ुदगर्ज़ी के आलम में रिश्तों से मुलाक़ात नहीं है।
कोई चाहता नहीं कि घर में मेहमान कभी आएँ,
भूले से मेहमान आ जाएँ, उन्हें तस्लिमात नहीं है।
महँगाई की दुहाई में ख़िदमत को भूल बैठे लोग,
तहजीब कहाँ से आएगी साथ जब सादात नहीं हैं।
बे-वज़ह की मसरूफ़ियत बताया करते हैं लोग,
बहुत कुछ है ज़िंदगी में, ख़ुदा की सौग़ात नहीं है।
चार लोगों के परिवार में सिमट गई है अब दुनिया,
अब दिलों में 'अतिथि देवो भवः' के जज़्बात नहीं हैं।-
🔥🔥🔥💖हमारी अफ़वाह के धुएं वहीं से उठते है,🔥🔥🔥🔥
❣️🔥🔥🔥🔥🔥🔥जहा हमारे नाम से आग लग जाती हैं।💯🔥🔥-
अतिथि देवो भव
हमारी संस्कृति और सभ्यता का एक मंत्र है
माता-पिता, आचार्य, अतिथि सभी समान हैं।
सम्मान अतिथि का भी इनके समान कीजिए
जाति,धर्म,उम्र कुछ भी अतिथि का न देखिए।
ऐसी महान परम्परा आज लुप्त हो रही है
माता-पिता की सेवा सम्मान भारी हो रही है।
अपनी परम्पराओं, संस्कार हम भूलते जा रहे
न जाने सभ्यता के किस दौर से गुजर रहे हैं।
अतिथि का सम्मान सभी को भारी लग रहा
भौतिकवाद में सारा संस्कार है जल रहा।
पूँछते हैं अब तो क्या लेकर आये हैं आप?
कब तक रुकेगें कितनी जल्दी जायेगे आप?
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