तेरी मंज़िल की साये से भी सदा आती है,
बा-अदब दुआ कुबूल, कुबूल, कुबूल!-
इत्तिफाकन नही था उनका कल्ब में शामिल होना
उनके लहज़ो की सदा ने बताया मिलना लाज़मी था-
मेरे आंगन से निकलते ही वो हवा हो गया
जिसे बोलने का लहजा दिया सदा हो गया
सारे चारागरो से बढ़के है हिकमत उसकी
लव से चुमा जो प्याला जहर भी दवा हो गया ।
शादाब कमाल-
हर "घर" जब सजेगा
"दुल्हन" सा लगेगा...................…०
"रीत" का मुस्काना
"दीप" को जलाना………………………०
"जगमगाते" "दीप"
"नवज्योति" जलाना.......................०
"हंसी" "खुशी" से
"खुशियां" मनाना..........................०
बड़ों का "पैर" छूना
"आशीर्वाद" लेना...........................०
"आज" दीवाली
"अच्छे" से मनाना..........................०
लड्डू भगवान को
फिर सबको खिलाना........................०-
पत्थर जैसे दिलों को जीतने का वो हुनर, मैं भी रखता हूं,
करोड़ों में सिर्फ़ 1 नज़र आऊं वो असर, मैं भी रखता हूं।
वादा कर चुके हैं किसी से, सदा मुस्कुराने का ऐ - दोस्त,
वरना अपनी आंखों में, दर्द का समंदर, मैं भी रखता हूं।।-
यह आसमाँ क्यों है, सुरमई-सुरमई सा
तुमने अपना आँचल, लहराया है क्या
फ़ज़ा में घुली है महक, भीनी-भीनी सी
तुमने बालों में गजरा, लगाया है क्या
यूँ तो हो सकता है, बेईमान मौसम का
झूठा फ़रेबी सा, यह तिलिस्म कोई
पर आ रही है सदा, ढूँढती-पुकारती मुझे
तुमने अपना कँगन, खनकाया है क्या
- साकेत गर्ग 'सागा'-
सहलाके दिल को, पुचकारते रहे,
दर्द सहकर ही जीस्त गुजारते रहे.
अपने आपको देखा न कभी,
कमिया औरों की ही निहारते रहे.
चेहरे पर जमी थी धूल मगर,
पोछा आईने पर ही तो मारते रहे.
सदा उन तक कैसे पहुंचती,
दिल ही दिल में उन्हें पुकारते रहे.
नित उनके ख्यालों में खोकर,
शामों सहर यादों में, गुजारते रहे.
औरों पर, उठी रही उंगलियां,
अपनी ग़लती, कहां, सुधारते रहे.
रू ब रू आकर कह न सके,
अहसास कागज़ों पे उतारते रहे.-
होंठों पर मुस्कान सजा रखना।
मिलेगा तुम्हें तुम्हारे सपनों का राजकुमार
हाथों में मेहंदी रचा रखना।
किसी शख्स को परखना
कायरों का काम है
सदा खुद में विश्वास जगा रखना।-
फटे पत्तों से जैसे हवा निकल जाती है
मेरे ज़ख्मों से वैसे दवा निकल जाती है
मरे दिल का इलाज़ हक़ीम करे भी कैसे
हाथ लगाते ही इक सदा निकल जाती है
जब मज़बूरियों पे कहकहे लगाता है शहर
मेरे घर के ज़र्रे ज़र्रे से दुआ निकल जाती है
शब-ए-महताब जो नूर बरसा भी दे कभी
खुशियां लिए बाद-ए-सबा निकल जाती है
बोलता हूं आफ़ताब घर ले आऊंगा जब
सुन के चराग़ों की भी हवा निकल जाती है
यूं तो मशरूफ़ हूं नेकी में सुबह- ओ -शाम
फ़िर भी कभी कभी बद्दुआ निकल जाती है।।-