मेरी बर्बादी में सब का हाथ हैं
मैं ये क्यों कहूं??
मेरी तबाही का गुनहगार नायब मैं खुद हूं
प्यार मुहब्बत दोस्त यार , पे क्या इल्जाम दूं
मेरे हर एक कर्म का हिसाब में खुद हूं
तू जिसे इश्क कहे मैं जलील मान लूं
मेरे क़िरदार का हिजाब मैं खुद हूं
तू मुकम्मल करे न करे मेरे सवाल
मेरे कहानी का जवाब मैं खुद हूं।।
-
Azan's voice was heard in my ear for the... read more
इक इत्र उसकी खुशबू का
एक रंग उसके नूर सा
एक जश्न उसके खयाल का
एक माथा उसके सिंदूर सा
एक इंतज़ार उसके राह का
एक नजदीकी उसके दूर सा
एक शाम उसके नाम का
एक खता उसके बेकुसूर सा
ला इलम नहीं उसकी आंखों से
वो इस क़दर मगरुर सा ..
✍️Izafa ریشما۔
-
मैं स्थिर हूं, मैं तथ्य हूं
मैं प्रचल हूं ,मैं सत्य हूं
मैं मलंग हूं इस सृष्टि से
मैं क्रोध हूं, मैं प्रेम हूं
मैं वाणी बस ऐसी बुनु
मैं दया का ही रूप हूं
मैं विनाश हूं पापी का
मैं ही लीन हूं विलीन हूं
मैं हूं नहीं प्रदर्शन का पात्र
मैं बस आस्था से परिपूर्ण हूं
-
तुम्हें देख कर ही, हर एक शायरी करी हैं
तुम्हारे रंग से ही , अपने हर एक पेज की डायरी भरी हैं-
चाहती हूं एक
मुकम्मल फ़साना ए किताब ~लिखना~
जिसमें एक शहजादी
किसी शहजादे
एक राधा
किसी कृष्ण की
अधूरी एहसास ए
मुहब्बत की ~गुलाम~ ना हो।-
ना मजारों पे, ना बातिल ए
तोहम परस्त पर यकीन रखते हैं
इलाह ए इश्क़ वाले तो
सिर्फ रसूल पाक ईमान ए
सदाक़त परस्त पर यकीन रखते हैं
-
वो चुपके चुपके एक किताब लिखते हैं
अपने हर लफ्जों का हिसाब लिखते हैं
वो डायरी में पड़े सूखे बिखरे पत्तों
को मुहब्बत का गुलाब लिखते है
वो हवा को एहसास, बारिश को जज़्बात
चांद को आसमा का अहबाब लिखते हैं
वो महबूब के दिदार ए इंतिज़ार
को माशूक का इज़्तिराब लिखते हैं
वो दिया को नूर , जन्नत को तक़दीर
दहलीज़ पे बैठी मां को रूबाब लिखते हैं
वो खुदा पे यकीन ए ऐतबार अपनो से
प्यार, इसी ख्याल को आदाब लिखते हैं
ریشمizafa✍️
-
रखा ही क्या है देश को विकास दिलाने में
कही भूखे गरीब जी रहे है एक निवाले मे
उन्नति दिख रही हैं अब भी बेशक बहुत
कहीं भाषण ,कही जनता को बहलाने में
कई संस्थान कई स्कूल खोले जा रहे है ?
रोज़गार के नाम पे बस ,जाम के मयख़ाने है
प्रेम का परचम कभी कहलाता था भारत मेरा
अब तो धर्म ही हैं इनका कड़वाहट फैलाने में
देश भी वेश बदल रहा हैं,कोटि नमा इन्हे
बस शहरों का नाम परिवर्तन करवाने में
अब भी समय हैं सुधर जाए, कही देश ही
ना बिक जाए यूंही हिंदू मुस्लिम बटवारे में! ✍️izafaریشم-
जो मैं बैठी हूं रुख इबादतों में
तेरी रहमतों का बस इब्तिदा ले कर
कैद पंछी सी जीस्त मेरी अब
सुन्नते फर्ज़ नफले सब कज़ा ले कर
ख़ाक हो जाऊं जो मैं ख़ाक से पहले ए,रब
मैं आज़ाद फिरना चाहती हूं तेरी रज़ा ले कर
-
इनकी इंसानियत इनकी नेक दिली का एहतराम करते हैं
इनके कलम के हर अल्फाज़ को हम सलाम करते हैं ।।
-