गर्व किस बात का
करता साहेब,
खुदा ने हमें मिट्टी
का बना के,
मिट्टी मे मिला दिया-
किस तरह घर से दूर बीत रही,हाल-ए-जिंदगी घर नहीं बताता,
हँस देता हूँ फोन पर,अपना दर्द नहीं बताता
सबको बहला देता हूँ मैं बातों से अपनी
फ़क़त एक माँ है जिससे कुछ छुप नही पाता
वक़्त पर नही मिलती थी तो घर सिर पर था उठाता
अब दो वक्त की खाकर,दिन हूँ अपना बिताता
सज़ा खूब दे रहा है वक़्त, वक़्त बर्बाद करने की,
अब तो नींद में भी ख्याब, आवारगी का नही आता
नासमझ "मुनीष" समझदार इतना हो गया
कि, रोता है पर आंसू नहीं बहाता।-
"गम लिखूँ या किस्मत में दर्द की सजा लिखूँ▪▪▪▪
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सबने तो लिखी शायरी, क्यूँ ना मैं दवा लिखूँ▪▪▪▪-
गुनाह-ए-इश्क का फरमान आया है,
सजा-ए-मौत हो उनका ये पैगाम आया है,
हसरत-ए-दिदार में की खुली रह गई आँखें,
आख़िरी वक्त भी इन लबों पर उन्हीं का नाम आया है।
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रात को जल्दी बीत जाने का हुक्म दे दो..
ख़्यालों को अब लेनी होगी रुख्सत हुक्म दे दो..
कंधा भीगा हो तुम्हारा मेरे आँसुओ से,
बस मेरी इस आखिरी सज़ा का फरमान जारी कर दो ।।-
यूं तेरी आंखो में पल - पल
इक खता नजर आती है मुझे
तेरा यूं बिन बात के रूठ जाना
इक सजा नजर आती है मुझे
मोहब्बत है तो सरेआम कुबूल करो
जमाने में किसी किसी की आंखो में ही
वफा नजर आती है मुझे
तेरा यूं बिन बात के रूठ जाना
सजा नजर आती है मुझे
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उस शहर में ज़िंदा रहने की सजा काट रहा हूं
जहां जज्बातों की कोई कदर ही नहीं-
खुश थे, थे जब तक कैदी झूठ के,
सच की गवाहियों ने दी है सजा जिन्हें ।-
पूछ तो लेते मुझसे मेरा रज़ा क्या है,
इश्क़ के मारे है इससे बड़ी सजा क्या है।-