आइए, सहिष्णुता (सहनशीलता), संयम एवं वाणी की मर्यादा का महत्व समझते हैं......
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मैं "संयम" सा प्रवाहमान तुम्हारे नस नस में....और
तुम "मौन" सा विद्यमान मेरे मन मस्तिष्क में...
न तुम्हें संयम तोड़ने की है अनुमति... और
न मुझे मौन भंग करने की छूट...
प्रेम नदी के दो किनारे से....
एक दूसरे से जुड़े हुए.. और
एक दूसरे से अलग हम..... 🖤-
जब मुश्किल हो डगर और लंबा हो सफर,
जब मन में कोई दुविधा हो और ना मिल रहा कोई हल हो,
जब होंठों पर चुप्पी हो और तेरी हिम्मत टूटी हो,
जब दर्द की लंबी कतार हो और परिंदा भी पर ना मारे तो,
फिर भी उम्मीद की चमक बरकरार रखना रे बंदेया।
ना गर्दिश में रहना, कहना अपनों से कहना,
ना रुकना कहीं, ना थकना कहीं,
ना डरना कभी, ना मरना यूँहीं,
ना टूटने देना बंदेया तू अपने हौसले को,
बढ़ते जाना वक्त के संग तू,
किसी दिन पहुँचेगा तू अपनी हीं मंजिल को,
बस तू खुद पे रखना यकीं,
रब है यहीं कहीं,
रब है यहीं कहीं ।।
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द-या धर्म का मूल है , इसको उर में धार
स- ब जीवों को जीने का है समान अधिकार
ल-ड़ मन के विकारी भावों से,दे दूर भगाएं
क्ष-य अष्ट कर्मों का करलें, फिर सिद्धि महापद पाए
न-श्वर है देह समझ जीवन की क्षण भंगुरता
म-न वचन कर्म में अंतर न रहें, हो एकरूपता
हा-सिल हो जाए फिर मानव जीवन की भव्यता
पर्व -पर्यूषण बारम्बार दर्शाये शुद्धात्म की महत्ता-
वहाँ से उखाड़ कर,
पौधा जो यहाँ लगाया हैं,
क्यूँ चिन्तित हो इतने,
'गर वो पौधा कुम्हलाया हैं,
माहौल में ढलने को,
थोड़ा वक्त तो लगेगा,
फिर जड़ें मजबूत होगी,
फिर भरपूर खिल उठेगा,
एक खेल हैं समय का,
थोड़ा धैर्य, थोड़ा संयम,
अनुकूलन ये समय का,
संतुलित कर देगा सब एकदम ।-
आप कर्म की पराकाष्ठा को पार करिए...!
सफ़लता आपके पिछले सारे रिकार्ड तोड़ देगी...!!-
"कैसे वर्णन करूँ की क्षण क्षण तुम्हारा ही स्मरण करती हूँ,
तुम्हारी स्मृतियों में लीन होकर अपने संयम का हरण करती हूँ!
यादों की भरी सभा में तुम्हारे ही सन्मुख पलकों को मुँदकर,
तुम्हारे लिए खुशियाँ तथा अपने लिए विरह विषाद का वरण करती हूँ!"
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आरंभ आणि शेवट,
ह्या तर दोन पाऊलवाटा ll
त्यामधील सय्यम,
म्हणजेच आपली जीवनगाथा ll-
वक़्त है, कभी ठहरता नही, जल्द ही गुज़र जाएगा,
संयम रखो, हौसला रखो, ये मौसम भी बदल जायेगा-