स्वयं के विरुद्ध ही
युद्ध होना पड़ता है-
तुम्हारी आत्मा शुद्ध है
तभी तुम सुंदर हो
कुछ लोग तो बदसूरत कहेंगे
सब का देखने का नजरिया एक जैसा नहीं है-
अब बस जुनूँ बयाँ करेंगी हमारी आँधी की कारिस्तानी
हम तैर सागर पार हुए हैं कैसे सीना तान उन लहरों से
बिख़री तट की व्यवस्था को सुखी नज़र की परख नहीं
जो दिल मे जोश भरे दे वासता है हमारा गंगा की उन शहरों से-
दोस्ती को शुद्ध कहते हो
और प्रेम को दूषित,
सच है,
सम्पूर्ण समर्पण
आसान भी तो नहीं होता।-
भट्टी में पिघल के जो अपना रूप लेते है
हमे मालूम है उन्ही को शुद्ध खरा कहते है
बनते मोम की भांति है उनको खरा कहना क्या
घेरे सत्य को फिर भी खुद ही पिघलते है।-
धर्म की प्रस्तावना का गर्व है,
विजयदशमी का ये पावन पर्व है!
राम की गाथा वृहद का हो स्मरण,
शुद्ध कर लो स्नेह से अंतःकरण..!
माता वैदेही का अद्भुत त्याग है,
भ्राता लक्ष्मण का सुखद अनुराग है!
स्वर्ण नगरी भस्म होती पाप से,
पुण्य करिये है निवेदन आप से.!
सीख लें निष्ठा सभी हनुमान से,
प्रीत ज्यों साधी उन्होंने राम से..!
स्वतंत्र दुर्गुण से सभी जन दूर हों,
दर्प रावण सा न हो कि चूर हो..!
सिद्धार्थ मिश्र-
ज्ञान निर्मल प्रेम से जब शुद्ध है,
तृप्ति से परिपूर्ण आभा बुद्ध है.!
सिद्धार्थ मिश्र
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