मुरीद_ए_इश्क
मुरीद बनती गई उस शख्स की मैं हर दिन
क्यूं की मोहब्बत में उस की खलल न दिखी-
ख़्वाहिश नहीं तेरी महफ़िलों की हमें,
हम तो तेरी दी हुई तन्हाईयों के मुरीद हैं,
अपनी नज़रों से हमारा अक्स छुपाओगे कैसे..
कि हम तो तेरी पहली मोहब्बत के चश्मदीद हैं-
सुना है मुझमें अना बहुत है
ज़मीर मेरा जला बहुत है
सबात मुझमें भरे अगर वो
पता चलेगा दग़ा बहुत है
मिला नहीं दिल किसी से मेरा
सभी पे अक़्सर मिटा बहुत है
मुरीद उसका हुआ नहीं मैं
उबाल दिल में घना बहुत है
कभी उसे भी निकाल 'आरिफ़'
लिहाज़ दिल में रखा बहुत है-
जिसने देखा तुझे तेरा मुरीद हो गया
लड़की नहीं तुम, कोई हकीम हो जैसे
-©सचिन यादव-
अन्धेरों में भी बहते अश्क पहचान ले कोई हुनरबाज नहीं ऐसा!
लाजवाब है "वो शख्स" जो मुझमें मुझसा मुरीद आया है!-
एक दौर था जिंदगी का जब एक हम ही तेरे तलबगार हुआ करते थे और एक आज का दिन है कि हर कोई ख़ुदको तेरा मुरीद बता रहा है....
हमने तेरा जिक्र करना क्या छोड़ा जमाने को जैसे छूट ही मिल गई हो इश्क फरमाने की हर एरा गैरा नत्थू खैरा कमबख्त ख़ुदको रक़ीब बता रहा है...-
हर रात तलाशती है न जाने चाँद में किस को
अल्लाह मुरीद की मुराद है के चाँद ही बना दे-
यह अपनों की हसीन दुनिया, बड़ी ज़ालिम है
मुझे मेरे ही अल्फाज़ के लिये चिढ़ाती है,
वही अल्फ़ाज़..
जिनके लिये बाहरी दुनिया माथे पर बैठाती है,
अपने.. 'उन में'.. मुझे ढूँढते हैं
पराये.. 'उन में'.. ख़ुद को खोजते हैं
जो मरासिम होते हैं पुराने
वो तर्क करने लगते हैं, छेड़ने, घेरने लगते हैं
जो अजनबी अनजाने से होते हैं, वो अपने लगते हैं
हर हर्फ़, हर लफ़्ज़ का दर्द, मायना समझते हैं,
आपके लिखे को ख़ुद का आईना समझते हैं,
ख़ैर छोड़ो..यह तो पुराना दस्तूर है,
जो आज भी चालू बदस्तूर है
मैं तो आवारा सा एक शायर हूँ, कहाँ बाज आऊँगा
सिर्फ़ लिखना ही आता है, 'ग़र नहीं लिखूँगा
गोया के.. मर जाऊँगा
कोई पढ़े ना पढ़े, कोई सुने ना सुने
मैं ख़ुद पढ़ता जाऊँगा, ख़ुद ही सुनता जाऊँगा
दाद भी दूँगा, वाह-वाह करता जाऊँगा
क्या हुआ जो नारसिस्ट कह लाऊँगा
पर अपना दिल और न दुखाऊँगा
फ़क़त एक दिन जब..
मेरा गुल भी "गुलज़ार" हो जायेगा
देखना जो आज मेरा अपना मुझसे चिढ़ता है
वही मेरा सबसे बड़ा अपना
मेरा हबीब, मेरा मुरीद हो जायेगा
- साकेत गर्ग-
नब्बे अरब डालर कैश छोड़कर मर रहे धनी से मुरीद ने पूछी आखिरी इच्छा,
जवाब ख़ूब आया बोला सो अरब डालर इकट्ठे करने की इच्छा व्यर्थ चली गई !!-
फिर आई है वो, अपने पैरों में घुंगरू -बांध
बादलों से गिरती हुई, हल्की पानी की -बौछार..!
मानो जैसे किसी अजनबी से वो मेरा दिल रही हो -बांध,
मुरीद बनी करती रही, मैं अज़ीज़ का -दीदार..!!-