मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा था
आधा मुसलमान हूँ
शराब पीता हूँ
सुअर नहीं खाता
कौन सा मुसलमान है जो
शरीया है निभाता
नहीं तो ढोंग कर
शरीयत क्यों है जताता-
जरूरी नहीं कि हर चाहत का मतलब इश्क हो हो
कभी कभी अनजान रिश्तों के लिए भी
दिल बेचैन हो जाता है-
ना सुनो गर बुरा कहे कोई,
ना कहो गर बुरा करे कोई.।
रोक लो गर ग़लत चले कोई,
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई.।
जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब',
क्यूँ किसी का गिला करे कोई.।
(मिर्ज़ा ग़ालिब)-
बेवजह नहीं रोता इश्क़ में कोई 'ग़ालिब'
जिसे खुद से बढ़कर चाहो वो रुलाता जरूर है
तोड़ा कुछ इस अदा से तअल्लुक़ उसने 'ग़ालिब'
कि सारी उम्र अपना क़सूर ढूंढते रहे
-मिर्ज़ा ग़ालिब-
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि
हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान
लेकिन फिर भी कम निकले
:-मिर्ज़ा ग़ालिब
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चाशनी की तासीर मीठी ही हो ज़रूरी तो नहीं जनाब,
ज़रूरत से ज़्यादा मिठास कड़वा कर देता हैं ग़ालिब।-
हुज़ूर आह जो निकली है तो जाएगी दूर तक
रात की ख़ामोशी नहीं जो बदल जाती है सुबह तक
K K-
!!! 'स्वीकारोक्ति' !!!
मैंने शायर इतने करीब से नहीं देखे
कि किसी शायर का मिजाज़ बता दूँ
शेरो-शायरी, गीत-गज़लों को
किताबों में पढ़ा और वहीं तक रहा।
ये भी नहीं बता सकता कि
ग़ज़ल, शायरी, मतला, मिसरा
एक दूजे से कितने भिन्न हैं।
मिर्ज़ा गालिब, मीर, रिज़वी
से गुलज़ार की शृंखला की
गज़लों का भी भान नहीं
मैं भी जानता हूं दिल की भाषा,
आँखो की बातें, मोहब्बत के किस्से
प्यार, इश्क़, मोहब्बत, वफ़ा, ज़फा
ये सब मेरी भी कविता के हिस्से रहे
प्रेम से दूर हो
प्रेम पर ही तमाम हुआ मैं
कितना कुछ जाना मैंने ?
कितना कुछ देखा मैंने ?-
उत्तर प्रदेश के आगरा के जन्में वो,
उर्दू अदब के उम्दा-बेहरीन शायर जो,
बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि वो,
उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर जो,
दबीर-उल-मुल्क, मिर्ज़ा नोशा खिताबी वो,
नज़्म-उद-दौला, काते बुरहान से नवाजे जो,
उर्दू के हस्ताक्षर कवि-शायर मिर्ज़ा ग़ालिब वो।-
दिल ने उनकी हर एक फ़रियाद को माना हैं......
और आज उन्होंने केह दिया कि उन्हें जाना हैं......
ना मानते कैसे उनकी ये आरज़ू,
आज की दुनिया में मोहब्बत सिर्फ दिखावा हैं.....-