यकुम थी जनवरी की लिहाज़ा जश्न में निकल गई
अब पूरे साल जश्न की तवक़्क़ो तो नहीं की जा सकती
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मैं चिकित्सा पेशे से हूं
चीरफाड़ करना मेरी आदत है
गमों को कागज़ पर... read more
मुद्दतों लिखता रहा हूं किसी किताब की तरह उसे
जो छपकर तैयार हुई तो ऐरे-ग़ैरे भी पढ़ने लगे उसे
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फ़क़त इक यही फ़न उसे औरों से जुदा करता है
सिर्फ़ तबीब ही मौत को ज़िंदगी में तब्दील करता है
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पोखर के पानी सा अच्छा तो समन्दर सा खराब हूं मैं
किसी के लिए शीतल जल तो किसी के लिए तेज़ाब हूं मैं
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तामीर मयस्सर हो ना हो मगर एक सायबान होना चाहिए
कोई और हो ना हो पर बाप जैसा निगहबान होना चाहिए
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एकबारगी फिर वही इक चेहरा याद आ जाता है
जब कोई कहता है तुम्हें मुझ पर ऐतबार नहीं है क्या
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बिन शाख़ के दरख़्तों में हम यूं छांव ढूंढते रहे
गोया पराए शहर में हम अपना गांव ढूंढते रहे
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तेरे लिए अलग से अज़ाब तय किए होंगे ख़ुदा ने 'शान'
तूने बहुतों के दिल दुखाए हैं सिर्फ़ ख़ुद की खुशी के वास्ते
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फ़लक पर चांद दिखा , फिर ईद हुई , और ईदी भी मिली
सिर्फ़ इक उससे गले मिलने की हसरत इस बार भी अधूरी ही रही
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हर इक शख़्स है यहां गिरफ़्त में उसकी
अलामात भी उसके कोरोना से कम नहीं
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