अनिल चौधरी   (पृथ्वी)
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मुझ में दफ़्न हैं....
दयार मुहब्बत का..

फ़ुर्सत मिले तो ...
कभी आ कर देखो..
Joined 26 March 2022


मुझ में दफ़्न हैं....
दयार मुहब्बत का..

फ़ुर्सत मिले तो ...
कभी आ कर देखो..
Joined 26 March 2022

वो गलती जिसमें तौबा थी..,
कुछ तरबियत का रंग भी था
गर वक़्त पे महसूस हुई होती..,
तो ज़ख़्म नहीं, मरहम भी था
अब बात नहीं, बस याद बची..,
और एक तवील ख़ामोशी है,
जो कह न सके, वो लफ़्ज़ नहीं..,
कुछ सज़ा थी, कुछ नम भी था

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कंधे से कंधा मिलाकर चलते है कुछ लोग,
ना कोई सौदा, ना शर्तें, ना ही कोई डर...

जो हर मोड़ पर साथ चलें... उन्हें दोस्त कहते हैं

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दोस्ती...

रूहों की रागिनी है, बिना कहे बहती धुन कहीं
दोस्ती कोई सौदा नहीं, कोई दस्तख़त नहीं,
ये वक़्त की सरहदों को नहीं पहचानती,
मुसीबतों की गर्दिशों से भी नहीं घबराती,
न तौलती है देने और पाने की किताब,
बस साथ चलने में ही ढूँढ लेती है अपना जवाब
जहाँ लफ़्ज़ चुप हो जाएँ, वहाँ ये बोलती है,
जो दिल समझ ले, वही इसकी ज़ुबान होती है

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True friendship is the sublime symphony of souls, an unspoken concord that transcends time, traverses tribulations, and thrives not on reciprocity, but on the sheer joy of unwavering camaraderie.

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लोग जैसे थे, मैं वैसा देख ही कहाँ पाया..,
हक़ीक़त की किताब में कुछ क़िरदार छपे ही नहीं...

मैं हर बार एक अधूरी कहानी से मिलकर लौटा हूँ...

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कुछ नक़ाबें मजबूरी की, कुछ हुनर की...
हर आदमी में रहते हैं, दस–बीस आदमी...

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"Set aside the tyranny
of taste in favour
of the triumph
of well-being..."

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बारिश से अब डर सा लगता है,
कहीं वो तेरी याद लेकर न आए,
कहीं मैं फिर भीग न जाऊँ…
उस लम्हे में..,
जो अब तेरा नहीं… मेरा नहीं...

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आज एक बूँद हाथ पर गिरी थी,
वो तेरी बात जैसी लगी —
छोटी, नर्म, मगर सीधी दिल पर..

बारिशें अब जवाब नहीं देतीं…
सिर्फ़ यादों को गीला करती हैं।

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भीगी हुई इक शाम ने तुझको लिखा है,
सावन की हर बूँद ने तुझको लिखा है
छत पर वही पुरानी सी खामोशी बैठी,
घर का कोना कोना तेरे नाम लिखा है
तेरे बिना मौसम भी अधूरा लगता है,
हर रंग में बस तेरा ही चेहरा दिखा है
ख़त में न लफ़्ज़ हैं, न शिकवे कोई..,
तू लौट आए.., दिल ने तुझको लिखा है
भीगी हुई इक शाम ने तुझको लिखा है,
सावन की हर बूँद ने तुझको लिखा है

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