अब भी महकता है मेरी साँसों में तेरे इश्क़ का केसर
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शब भर,
ये कैसी खुश्बू महक रही थी
मेरी रूह में..
कहीं तुम,
ख्वाबों में मुझसे मिलने तो
नहीं आए थे..?-
खुशबू-ए-अहसास में जब वो याद आये
भीनी सी खुशबू ख़्वाब में उतर गयी
महकाया फ़िर अपने अहसासों से खूब
जैसे गुलाब की पंखुडियां बिख़र गयी
हाथों से अपने जब सँवारी प्यारी सूरत
गालों की लाली और ज्यादा निख़र गयी
रेश्मी जुल्फ़ो में घुमाया जब-जब हाथ
शर्मों हया हाय् बस बदन से लिपट गयी
नूरानी चेहरे की चमक और चमक उठी
जब वो भी उसकी बाँहो में सिमट गयी
लबों की लबों से जब यूँ हुई टकराहट
मानो एक छुअन से जिंदगी संवर गयी
एक हसीन ख्वाब था वो 'रूचि' रात का
उसके बाद वो परछाई जाने किधर गयी-
पूछने को आती है वो महक बार बार हमसे,
कि बता तो दो वो पता जहाँ से वो मेहंदी लाती है!-
जब समझ लिया मैंने,
तालाब कमल का नहीं हो सकता...
कमल तालाब का हो सकता हैं...
बस, जिंदगी महक रही हैं तबसे!-
तेरे हाथों की मेंहदी की वो महक
तेरी बातों में वो कशिश और चहक
आज भी याद हैं....
पहली मुलाकात का ख़ुमार
आज भी आबाद हैं......
©कुँवर की कलम से...✍
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ज़रा फ़ासले से, कुछ दूरी से भी अच्छा लगता है,
ग़ौर से देखो, चाँद खिड़की से भी अच्छा लगता है!
ऐसा नहीं लाज़िमी नाज़िर हैं तहसीन-ए-चमन के लिए,
शाख़-ए-गुल को रिश्ता तितली से भी अच्छा लगता है !
मसनूई खुशबुओं ने बिगाड़ दी है आदत वगरना,
सौंधी महक का आना मिट्टी से भी अच्छा लगता है!-
वो मुझमें पसीने की महक सा घुला है
यूँ इत्र की शीशी में क्या ढूंढते हो...
ए मेरे यारों मेरे हर जज़्बात में सिर्फ वो है
यूँ चंद लफ्ज़ों में क्या ढूंढते हो...
मेरे चेहरे की ये चमक उसके साथ से है
यूँ चाँद की चांदनी में क्या ढूंढते हो...
मैं नहीं उसका साया जो छोड़ दूं साथ रातों में
यूँ वक़्त की मेहरबानियों में क्या ढूंढते हो??-
उसके चेहरे, उसकी आँखें, उसके बालों की महक
कहीं मेरी जान ना ले जाए उसके गालों की महक
इश़्क उसका ज़िन्दगी जीने का सहारा बन गया है
हर वक़्त मुझे अब हँसाए उसके ख़्यालों की महक
जब भी कभी जाने का नाम लिया सहम जाती थी
अब मुझे और भी तड़पाए उसके रुमालों की महक
वो बोलती रहती और मैं उसमें कहीं खो जाता था
कौन उस पगली को समझाए इन सवालों की महक
उसके दूर जाने से ज़िन्दगी सहम सी गयी है अब
उसकी तरह ना बहलाए श़राब के प्यालों की महक
चैन, सुकून, ख़ुशी, भूख, सब था "आरिफ़" के पास
उसकी तरह ही कौन खिलाए इन निवालों की महक
"कोरा काग़ज़" बन के रह गया हूँ बिना उसके अब
जो भी चाहे लिख जाए उसकी इन चालों की महक-