हो सकता है उनकी भाषा
अधिक सरल, सौम्य और मीठी हो...
पर हमेशा उन्हें
मेरा स्वर कर्कश लगता है
मैं जिस भाषा में बोलता, खाता-पीता, चलता हूँ
उसमें मेरे देश-घर-अँचल की छाप है
जिसका पहला वर्ण
माॅं के कंठ से छनकर आया होगा...
मेरी भाषा अवधी है
उसमें शहर की ठेठ ठसक है
थोड़ी अलग है
जायसी, तुलसी, तिरलोचन से...
बिरहा, कजरी, नकटा
आल्हा और चैती में डोलती दिखती है हिंदी...
माॅं का ख्याल था
बियाह-गवन, सोहर में जन्मी हमारी बोली
पुरखे पुरनियो की बोली है...
तो भला कर्कश कैसे
भाषा के इस आघात को स्वीकार कर भी लूॅं
तो भला
हिंदी से प्रेम कर पाऊँगा....? कविता सिंह ✍️
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