जब त्यौहार आते हैं
तब सिर्फ त्यौहार आते हैं
रास्ते—
घर से आगे जाते ही नहीं
और घर
वहीं पुरखों की जमीन पर ठिठक जाता है
ताजे
वनस्पति की गंध
घरों से निकलती है और
धीरे-धीरे— छा जाती है पूरे
शहर पर...
जब त्योहार आते हैं— तब
मुझे ये पूरी दुनिया
घी-तेल में सीझा हूआ पुआ लगती है
गोल गोल, सुर्ख, पकी हुई लाल
यहाॅं तक कि त्यौहारों के बाद भी—
कई दिनों तक
जीभ की बटलोई
पूये के स्वाद से भरी रहती है...।
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