कविता सिंह  
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प्रधान संपादक
"मानवी त्रैमासिक ई पत्रिका"
Joined 8 March 2019


प्रधान संपादक
"मानवी त्रैमासिक ई पत्रिका"
Joined 8 March 2019

भूखों का भंडारा
मतलब चुनावी अखाड़ा
नया पैतरा नयी चाल
मतदान केंद्र पर
'पानीपुरी का स्टाल'

नेता जी का उद्घोषण
जन जन को मिलेगा पोषण
पहले खाओ गोलगप्पा
फिर लगाओ चुनाव चिन्ह पर ठप्पा...

गोलगप्पों की महिमा अपार
देखते देखते दिखी
मतदान केन्द्र पर
स्त्रियों की लम्बी कतार
कुछ नयी नयी वयस्क थीं इस बार
पर बहुतायत में थीं सत्तर के पार...

इतनी लम्बी कतार देखकर
नेता जी गदगद हो गये
चरणों में नतमस्तक हो गये

बोले
माता जी इधर से आइये
और वहां जाकर
पहले वोट डाल आइये...

माता जी आंखें सजल हो आयीं
बोलीं अबकी
न 'ह' से 'हाथ'
न 'क' से 'कमल'

पहले खायेंगे गोलगप्पा
फिर ही लगायेंगे
सबसे उचित चुनाव चिन्ह पर ठप्पा...। कविता सिंह ✍️

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यह जो सड़क पर तनकर हैं खड़े
आधे हवा में, आधे मिट्टी में गड़े
पौध छोटी हो,या पेड़ हों बहुत बडे़
कृतज्ञ मन बोलता, हे ! हरे-भरे
मै लघु तुम बड़े !

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इन प्रचंड लू के थपेड़ों में

ईश्वर !
तरबूजों की खेती कर रहा है...





(अनुशीर्षक में पढ़ें)




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समस्या यह नहीं कि
इन दिनों मैं अटपटा होता जा रहा हूँ
समस्या यह है कि...








अनुशीर्षक में पढ़ें—

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कितनी ही
पीड़ाएं

अधर
सोख लेते हैं

सिर्फ—
आत्मा जानती है

स्पर्श का
सुख…।


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धीरे-धीरे लौट जायेगा
भीड़ का हुजूम

लौट जायेंगे श्रद्धालु,
साधु-संयासी
लौट जायेंगे कथा वाचक

कल से
दिखाई नहीं देंगे
टी.वी. कैमरे…
हट जायेंगे
पुलिस बैरीकेड्स…

देवता
मंत्र से अभिमंत्रित हैं

ईश्वर !
प्रेम से अनुबंधित है

सिवाय ईश्वर के
लौट जायेंगे सभी

कितना अजीब है…।

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29 NOV 2023 AT 16:28

प्रचार का प्रसार है…
(रचना अनुशीर्षक में पढ़ें
















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28 NOV 2023 AT 16:52

जब त्यौहार आते हैं
तब सिर्फ त्यौहार आते हैं

रास्ते—
घर से आगे जाते ही नहीं
और घर
वहीं पुरखों की जमीन पर ठिठक जाता है

ताजे
वनस्पति की गंध
घरों से निकलती है और
धीरे-धीरे— छा जाती है पूरे
शहर पर...

जब त्योहार आते हैं— तब
मुझे ये पूरी दुनिया
घी-तेल में सीझा हूआ पुआ लगती है
गोल गोल, सुर्ख, पकी हुई लाल

यहाॅं तक कि त्यौहारों के बाद भी—

कई दिनों तक
जीभ की बटलोई
पूये के स्वाद से भरी रहती है...।

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20 NOV 2023 AT 19:44

घास-फूस के छाजे
पत्तियों के झाॅंझ बाजे
पुरवैया डोल गयी
खिड़कियाॅं पल्ले हवा सब खोल गयी
घर आँगन सिवाने
लो आ गयी सर्दियाॅं सिरहाने...

नदी के मुहाने
नींद में—
कुछ बत्तख़ें
कुछ कश्तियाँ लगीं सरसराने...

खेत में
खेत की मेंडों पर देखा
साग-पात पतियाते
ईख को गाॅंठ-गाॅंठ रसियाते
लगे मटर के दाने मुस्कुराने...

चौंके में हवा सेंध गयी
बर्तनों की हड्डियाॅं छेद गयी
रात के अंधेरे में
एक चम्मच, एक कटोरी
एक थाली लगी अकेले थरऽऽ थराने
घर आँगन सिवाने
लो आ गयी सर्दियाॅं सिरहाने...। कविता सिंह ✍️



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16 NOV 2023 AT 16:43

दस किलो का दही बड़ा
कितना बड़ा दही बड़ा

सात किलो दाल मंगायी
सिलबट्टे पर हुई पिसायी
दही जमायी आठ घड़ा
तब जाकर बना दही बड़ा

तलकर निकला बना ठना
छूकर देखा बड़ा कड़ा
सबके आगे प्रश्न खड़ा
कैसे बने इसका दही बड़ा

दादी ने एक राह सुझायी
पानी में डाला उड़द बड़ा
दाब-दाबकर खूब निचोड़ा
तब जाकर बना दही बड़ा

नरम नरम दाल बड़ा
दही में जाकर कूद पड़ा
डुबुक डुबुक के खूब हंसा
भारी भरकम दही बड़ा

खाकर आया मजा बड़ा
दस किलो का दही बड़ा

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