असंख्य बार
मैंने अंतरिक्ष की सैर की
सैकड़ों बार ब्रह्मांड के चक्कर लगाये
कई बार चाॅंद पर गया
सूर्य के नजदीक तक टहल कर आया
लेकिन मैंने वहाॅं—
(अनुशीर्षक में पढ़ें पूरी रचना —-
"मानवी त्रैमासिक ई पत्रिका"
एक दिन मैंने अकारण पूछ लिया—
प्रभु !
बिना टिकट यात्रा…?
(रचना अनुशीर्षक में पढ़ें—-
दूरी इतनी ही रहे कि—
पलट कर देखे जा सकें
एक ऑंख से दूसरी ऑंख के आँसू
सुनाई देती रहे धड़कनें,
हाथ बढ़ाकर
थामा जा सके दूसरे का हाथ…
दूरी इतनी ही रहे कि—
तुम्हारी हथेली पर
सुस्ता सके मेरी हथेली...।
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मुझे पसंद है हर चीज को
करीने से समेटना—
मैंने किताबों को एक रैक में खड़ा किया
बालों को समेटकर जूड़ा बाॅंधा
कपड़ों की तहें ठीक की
और माथे के
बीचोंबीच बिंदी को टिकाया
मैंने आइने को झाड़ पोंछकर देखा
दुनिया—
एक गोले में सिमट गयी है…
मुझे पसंद है हर चीज को
करीने से समेटना—
यहाॅं तक कि
तुम्हें भी…। कविता सिंह ✍️
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हम जियेगे अपनी-अपनी तरह से
और कभी नहीं कहेंगे—
मजबूरी थी…
(रचना अनुशीर्षक में पढ़ें—-
क्रैश से ऐन एक मिनिट पहले
ईश्वर से मोह और अधिक हो गया होगा
ऐन एक मिनिट पहले
बच्चों के नाम पर सहम गया होगा
पत्नी अधिक प्रिय हो गयी होगी
माॅं को याद कर
बिलखकर रोया होगा
बच्चों की तरह…
सदियों के इंतजार के बाद
घर लौटने की उम्मीद दुगनी हो गयी होगी
क्रैश से ऐन एक मिनिट पहले...।
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वह कोई
जगह है मेरे रहने के लिए
जहाँ न कपाट है न खिड़कियां
दर्पण ही दर्पण है, बिम्ब ही बिम्ब है
बच नहीं पाती प्रेम करने से
जहाॅं अस्वस्थ देह भी करती है प्रेम
चाहूँ भी तो नहीं सूखता हृदय...
कब से चल रही हूँ
घूम फिरकर वहीं आ जाती हूॅं
थककर
मीठा हो जाता है स्वेद...
कितना शहद है तुम्हारी बातों में
ओक भर चखा था प्रेम
तबसे मीठी हो गयी है जिह्वा…
सैकड़ों चुप, सैकड़ों धड़कनों के भीतर
तुम्हारी आत्मा—
सबसे सुंदर जगह है
मेरे रहने के लिए...। कविता सिंह ✍️-
यथार्थ से कोसों दूर
सोशल मीडिया पर उड़ता हूॅं मैं
पंख फैलाए...
उड़ते हुए
एक दिन गिरूॅंगा छपाक् से
धरती पर...
जब झर जाऍंगे पंख…।
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( सीढ़ियाॅं…)
अब आ ही गया हूॅं क्या करूॅं
कहाॅं बैठूॅं...
अनुशीर्षक में पढ़ें—-