कविता सिंह  
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प्रधान संपादक
"मानवी त्रैमासिक ई पत्रिका"
Joined 8 March 2019


प्रधान संपादक
"मानवी त्रैमासिक ई पत्रिका"
Joined 8 March 2019

क्रैश से ऐन एक मिनिट पहले
ईश्वर से मोह और अधिक हो गया होगा

ऐन एक मिनिट पहले
बच्चों के नाम पर सहम गया होगा
पत्नी अधिक प्रिय हो गयी होगी

माॅं को याद कर
बिलखकर रोया होगा
बच्चों की तरह…

सदियों के इंतजार के बाद
घर लौटने की उम्मीद दुगनी हो गयी होगी
क्रैश से ऐन एक मिनिट पहले...।

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वह कोई
जगह है मेरे रहने के लिए

जहाँ न कपाट है न खिड़कियां
दर्पण ही दर्पण है, बिम्ब ही बिम्ब है
बच नहीं पाती प्रेम करने से
जहाॅं अस्वस्थ देह भी करती है प्रेम
चाहूँ भी तो नहीं सूखता हृदय...

कब से चल रही हूँ
घूम फिरकर वहीं आ जाती हूॅं
थककर
मीठा हो जाता है स्वेद...

कितना शहद है तुम्हारी बातों में
ओक भर चखा था प्रेम
तबसे मीठी हो गयी है जिह्वा…

सैकड़ों चुप, सैकड़ों धड़कनों के भीतर
तुम्हारी आत्मा—
सबसे सुंदर जगह है
मेरे रहने के लिए...। कविता सिंह ✍️

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यथार्थ से कोसों दूर
सोशल मीडिया पर उड़ता हूॅं मैं
पंख फैलाए...

उड़ते हुए
एक दिन गिरूॅंगा छपाक् से
धरती पर...

जब झर जाऍंगे पंख…।

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( सीढ़ियाॅं…)

अब आ ही गया हूॅं क्या करूॅं
कहाॅं बैठूॅं...





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सिर्फ—

देवताओं के सहारे
नहीं काटे जाते बिछोह…






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'बिहारी जी' सबसे गर्म पंक्तियां
छिटककर फूट रही हैं
मक्के के दानों की तरह...





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फिर एक रविवार
खुद को समेटा

आकाश को निहारा
मिट्टी से तलुओं को सनने दिया,
हवा को छूआ
पत्तों का सौरभ लूटा
पृथ्वी के पोर-पोर से प्रेम किया…

फिर एक रविवार मैंने
खुद को समेटा
दुनिया की हर एक चीज से प्रेम किया…

फिर एक रविवार
मैंने—

खुद से प्रेम किया…।

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आज नहीं तो कल हो जाएगा
युद्ध विराम… !

शांति समझौते के बाद
एक-एक करके निकाली जायेंगी
राख के ढेर से लाशें…
गिनी जायेंगी शौर्य गाथाएं
और फिर...

एक दिन जब—
सब शांत हो जायेगा तब
सुनायी देंगी
अनाथ बच्चे, विधवा औरतें और
संतानहीन माॅं बाप की चीखें...

आज नहीं तो कल हो जाएगा
युद्ध विराम… !

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युद्ध सिर्फ युद्ध नहीं है—

युद्ध में सबसे पहले
मर जाती हैं देश की आत्माएं
एक-एककर
मरती जाती हैं सभ्यताएं
अंत तक
मरने लगती है भाषा की देह
और अंततः
सूख जाती हैं कविताएं...।

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कैसी दिखती है यह पृथ्वी !




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