कैसी दिखती है यह पृथ्वी !
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"मानवी त्रैमासिक ई पत्रिका"
बीते से नहीं नापा जा सकता
मेरा पेट
सारी पृथ्वी मेरा पेट है…
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जब
माॅं के बारे में सोचता हूॅं तो
पृथ्वी की
बड़ी याद आती है...
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भूख लगने पर
मैंने माॅं की ओर देखा
ईश्वर की ओर नहीं…
मैंने जाना
भूख माॅं से बड़ी थी और
माॅं ईश्वर से… ।-
क्योंकि सात बजे थे
धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ता जा रहा था
पानी किसी भी समय गिर सकता है
उसे गांव के सीवान पर छोड़ना
खतरनाक था…
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तुम्हारा इंतजार
जैसे नदी को किनारे का
शिशिर को धूप का
भूसे को सूप का…
जैसे धमनियों को
रक्त का
चूल्हे को आग का
खेतों को गेहूं का और
मिट्टी को धान का…
जैसे घोड़े को घास का
कठफोड़वे को काठ का
पेड़ों को नीड़ का…
इंतजार
जैसे ऑंखों को नींद का
हाथों को हाथ का
वैसे ही मुझे
सिर्फ तुम्हारा और सिर्फ
तुम्हारा...-
रात के ठीक तीसरे पहर
मैं वहां पहुंचा और डर गया
मोहल्ले का आखिरी आदमी भी लौट चुका था घर
दूर से आ रही थी
भौंकते हुए कुत्तों की आवाज…
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ठेले पर इतने ठाठ से
ठसाठस, ठसे पड़े थे अनानास
जैसे वे अनानास नहीं
ब्रह्माण्ड के सबसे सम्पन्न व्यक्ति हों...
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कैसा लगेगा अगर एक दिन अचानक
छूटने लगें पृथ्वी के सारे रंग
होली के रंगों की तरह...।
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जब उड़ते-उड़ते
अकड़ जाते हैं पंख तो
लौट आती हूॅं घर
जैसे स्कूल से लौटते हैं बच्चे
जैसे दफ्तर से
लौटता है कर्मचारी...
और जब—
बैठे-बैठे उकता जाती हूॅं तो
निकल जाती हूॅं घूमने पूरा देश
यह धरती मेरा घर है और
आसमान मेरा देश
मुझे दोनों से प्रेम है… ।-