स्वयं के विरुद्ध ही
युद्ध होना पड़ता है-
मैं राम का अभिमान हूं,
तो रावण का अहंकार भी मैं...
मैं बुद्ध की शांति हूं,
तो ख्वाहिशों का औरंगजेब भी मैं...-
मन है अतीव क्षुब्ध,
बुद्ध आ जाओ!
कर जाओ हमें शुध्द,
बुद्ध आ जाओ!
जन जन के है विरुद्ध,
बुद्ध आ जाओ!
धरती पर छिड़े युद्ध,
बुद्ध आ जाओ!
हो रक्तपात बंद,
बुद्ध आ जाओ!
हर जाओ सभी द्वंद्,
बुद्ध आ जाओ!
सुनकर कोई-सा छंद,
बुद्ध आ जाओ!
जिस रूप हो पसंद,
बुद्ध आ जाओ!-
जानती हूं...
कि अब तुम्हें,
सौन्दर्य आकर्षित नहीं करता ।
मेरे श्रृंगार तुम्हें मोहित करने में
नितांत असमर्थ प्रतीत हो रहें हैं।
अब तुम्हारा चित्त, मेरा अवधान नहीं करता।
संभव है...
कि, तुमने जीत लिया हो मार को..!
पार कर ली हो,
निरंजना रूपी वैतरणी को..!
खोज लियें हों,
दुःख के कारण और निवारण !
और विजय प्राप्त कर ली हो, इन्द्रियों पर..!
किन्तु तुम्हारे मुख पर,
सदैव, मेरे लिए
प्रेम देखने की अभ्यस्त
मेरी आंखें.....
:
इन सबमें मेरी पराजय देख रहीं हैं।-