अपने श्रम बिंदुओं से सबका पेट भराती है
माँ मूर्त है रब की,हर जिमेदारियाँ निभाती है....-
तेरे नाम पर लगा चन्द्रबिन्दु
अब समझ गयी माँ
चंद्र-सी तेरी गोद में,
बिंदु-सी लेटी हुई हूँ मैं.
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मैं एक बिंदु, आप सब के समीप आने से एक बड़े वृत्त में परिवर्तित हो गया। इससे मेरी जिम्मेदारी भी बड़ी हो गई और आप सभी में समय बँट गया। समय न दे पाने की शिकायत सभी करने लगे और मैं अपने को दोषमुक्त कर नहीं पाया। आप सभी से क्षमा याचना करता हूँ। आप सभी से स्नेह लेता रहा परन्तु दे नहीं पाया। मैं जो हूँ बस इन्हीं शब्दों में हूँ। आप अपने हिस्से का स्नेह इन्हीं शब्दों में पा जायेंगे यही मेरा प्रयास रहेगा।
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तुम केंद्र बिंदु मेरे जीवन के ⭕
तेरे प्रेम की त्रिज्या ही
मेरी भावनाओं की है सीमा ⭕
स्पर्श रेखा बन तुमने
जीवन परिधि के जिस बिंदु पर स्पर्श किया⭕
उस बिंदु पर मैंने
सम्पूर्ण जीवन को जी ही लिया⭕
प्रेम त्रिज्या की अभिवृद्धि होती गई
क्षेत्रफल प्रीत आयामों का बढ़ता गया⭕
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क्रूर वक्त ने अनायास खींची तिर्यक रेखा
विभाजित हो गया वो जीवन अपना
स्पर्श रेखा का वो छोटा सा बिंदु
त्रिआयामी ऊर्जा पुंज सा चलता रहा
प्रेम वृत अनंत तक अनवरत बढ़ता रहा.....
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बूँद-बिंदी-बिंदु
रक्त के 'बूँद' से शुरु हुई कहानी...
पसीने की 'बूँद' बन रहते हुए.,
आँसू की 'बूँद' बन बहते हुए.,
कभी किसी रोज 'बिंदी' मे परिणीत हो गयी,
कभी माथें की 'बिंदी', कभी काजल की 'बिंदी'
कभी तीज की 'बिंदी', कभी त्यौहार की 'बिंदी'
कभी पिता के सम्मान की 'बिंदी'
कभी पति के नाम की 'बिंदी'
कभी किसी रोज 'बिंदु' मे परिणीत हो गयी..
शून्य.... से भी छोटी सी 'बिंदु',
जिसे यदि 'मात्रा' में ना भी लगाया,
तब भी 'शब्द का अर्थ' और
'मर्म' समझ आ ही जाता है,
अपना अस्तित्व ढूँढती 'बिंदु' ,
गलती से कभी-कभी,
किसी और ही शब्द मे लग जाती है,
पर आवश्यकता उसकी वहाँ भी नहीं...!-
इतनी बड़ी ज़िन्दगी में चोट ना लगे ऐसा हो नहीं सकता.. हर चोट का दर्द बयां किया जा सके यह भी हो नहीं सकता..
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तेरी बिंदी,
चंद शब्दों के बाद बिंदू...
निखर जाता प्रवीण,
गले में बाहें डालते
जब जब,
अभि और आधार..-