मैंने कहा था, मुझे फूल बहुत पसंद हैं..
उसने अपने आंगन को बाग कर दिया..!-
तरह तरह के फूल, यौरकोट के बाग में
तरह तरह के सुर, यौरकोट के राग में
शब्दों से है खेली जाती, होली इस परिवार में
तरह तरह के रंग, यौरकोट के फ़ाग में
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इंतज़ारे-फस्ले-गुल में खो चुके आँखों के नूर
और बहारे-बाग लेती ही नहीं आने का नाम-
अगर सिर्फ़ जिस्म की भूख होती तो कब का उसे किसी शिकार की तरह दबोच लेते,
ये दिल, इसकी ये धड़कने है इश्क़ की परिस्तार
तभी तो ये अपनी कुछ हसरतें कहीं इसके किसी कोने में बादलों की तरह छिपा लेता है,
वरना इन धड़कनों का बस चले तो ये इश्क़-बाग की हर कली को अपने आगोश में समेट लेते...-
ये जमीं अगर तुम्हारी है, तो क्यों तुम आग लगाते हो?
गुल हो अगर इस गुलशन के, तो क्यों तुम बाग जलाते हो?-
मुझको मेरे हर दाग नजर आते हैं।
हर तरफ काँटों के बाग नजर आते हैं।
जल रहे हैं जो अँधेरा मिटाने रात भर
कालिख में सने चिराग नजर आते है ।-
मै भारत
सदैव बाग बगीचों से हरा भरा
आइये मेरे पास...
(अनुशीर्षक में पढ़ें....
कविता सिंह ✍️
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तोड़ कर फूलों को बागों से हमने गुलदस्ता बना लिया रहता वो
तीन-चार दिन बागों में कुछ और कि हमने उसे कुछ पल में ही मुरझा दिया-
पार्क वाली गली से गुज़र के जो वो जाती है
आँखें उसको देख कर बाग़ बाग़ हो जाती हैं
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हवाओं में बसी है तुम्हारी सुगन्ध
काश कि वो किसी बाग पर से न गुज़रे-