ग़ालिब, फ़ैज़, मीर, जाॅन बड़े अफ़सर है तेरे इश्क़!
तेरे दफ़्तर का बस इक छोटा सा लिपिक हूं मैं तो-
फ़ैज़! फ़क़त एक लफ़्ज़ है,
शख़्स है, या फिर है मुक़म्मल शायरी,
उफ़ क्या है यह ?
जो मौजूदा वक़्त की
इंसानी, समाजी और सियासी सच्चाई
की अक्कासी कर रहा है
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-सन्तोष दौनेरिया-
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-
फ़ैज़ और फ़िराक़ ने ऐसी आग लगारखी है ,
बुझाने के लिए बाबस्ता ग़ालिब को ढूँढ रहा हूँ।-
वाह वाह शायर क्या बात तुमने कही
जालिम जो हक़ में लगे वो ही लगता है सही-
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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कर रहा था ग़म-ए-जहां का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आये
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जन्म 13/2/1911-
गिनती साँसों की
ना एक कम, ना एक ज्यादा,
तय गिनती साँसें हैं जीना।
मिले दो गज ज़मीन,
या कुछ लकड़ियाँ हैं जलानीं।
कंधे पर किसी और के है जाना।
हर ज़िंदगी की है यही कहानी।
साथ जाएगा सिर्फ़ फ़ैज़-ए-रूहानी।
फिर क्यों बात बढ़ानी?
तकरार में क्यों व्यर्थ करें ?
गिनती साँसों की आनी-जानी।
💕अर्थ: फ़ैज़-ए-रूहानी ~spiritual benefit
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बारिश होते हुए भी
है यहां पानी कतरे में
जुबानों पर ध्यान दो ज़रा
है यहां संस्कृत और उर्दू ख़तरे में-
एक बार सही मुझे देखा तो होता
जाने से पहले सोचा तो होता
दिल में है ना जाने कितनी मुहब्बत
अपने दिल से भी एक बार पूछा तो होता
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