बो तो दी खेतों में फसलें किसानों ने भूख के मामलों में, और अभी तो जवां भी नहीं हुए थे पौधे मसल दिए बादलों ने, वर्षाए हैं नमक मुझपर दर्दभरे मेरे क्यों मलालों में, लगता है हमें तड़पाने की रिश्वत दे दी तुम्हे दलालों ने,
देख बादलों की पिचकारी आज जमीं मुस्काई, गेहूं के तेवर ही अलग हैं और ज्वार हर्षायी। खो बैठी अस्तित्व अपना बूंद बूंद समायी, नभ से गिरकर रिमझिम उसनें फिर मृदा महकाई। रूखी सूखी माटी की उसने खूब तृषा बुझाई, बूंद चूमकर फसलें झूमीं फूली नहीं समाई। माटी पूछे फिर कैसे चल दी राह भूली भटकाई, मन भारी सा हुआ री बहना तो मैं मिलने आई।
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