कागजी जमीन पर कलम का हल चलाते हैं
तेरे प्यार की मजदूरी में शब्दों की फसल उगाते हैं-
तन के कपड़े भी फट जाते है,
तब कहीं एक फसल लहलहाती है।
और लोग कहते है किसान के
जिस्म से पसीने की बदबू आती है।-
ये बिन मौसम की बरसात,
ना तो रोमांटिक है ना सुहानी है ,
भगवान की हम किसानों को ,
रुलाने की ये आदत पुरानी है।।
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देखो, खेत में नई, फसलें आ गयी है,
और तुम,बाज़ार की पुरानी,गद्दी हुए जा रहे हो।
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चाहे कोई भी बीज बो लूँ
मैं अपने हृदय के खेत में
फसल दर्द की ही उगती है-
स्कूल के बाहर
मैंने दूर से देखा....
एक बच्चे के बस्ते में
उम्मीदों की फसल लहलहा रही थी...
और..
वो— एक किसान के मानिन्द
स्कूल की ओर भागा जा रहा था...
यकीन मानो..
यह— गेंदनुमा पृथ्वी
बच्चे के बस्ते में गोल - गोल घूम रही है
और...
उसका ही श्रम—
हरा-भरा रखेगा मेरी पृथ्वी को
मेरे न रहने पर भी...
कविता..
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खरीद न पाता बीज भी
बेच कर अपनी फसल
हल चलाकर भी उसे नहीं
मिलता समस्याओं का हल-
बो तो दी खेतों में फसलें किसानों ने भूख के मामलों में,
और अभी तो जवां भी नहीं हुए थे पौधे मसल दिए बादलों ने,
वर्षाए हैं नमक मुझपर दर्दभरे मेरे क्यों मलालों में,
लगता है हमें तड़पाने की रिश्वत दे दी तुम्हे दलालों ने,-
हमे डर था जिस बिछड़ने की बात की
वो बात कर गई ।।
वो तूफान बन कर आई थी
और हमे फसल की तरह बर्बाद कर गई।।-
#बारिशें!
देख बादलों की पिचकारी आज जमीं मुस्काई,
गेहूं के तेवर ही अलग हैं और ज्वार हर्षायी।
खो बैठी अस्तित्व अपना बूंद बूंद समायी,
नभ से गिरकर रिमझिम उसनें फिर मृदा महकाई।
रूखी सूखी माटी की उसने खूब तृषा बुझाई,
बूंद चूमकर फसलें झूमीं फूली नहीं समाई।
माटी पूछे फिर कैसे चल दी राह भूली भटकाई,
मन भारी सा हुआ री बहना तो मैं मिलने आई।-