युगों युगों से "औरत" देती है जब जब "चुनौतियां"
किसी दुष्ट दानव के पुरुषत्व "अंहकार" को,
तब तब ये "समाज" उस औरत को
नहीं बने रहने देता है "औरत तक",
उसे "देवी" बना करने लगता है उसकी "पूजा",
उसे कर देता है "प्रतिमा" के रूप में सीमित,
इस "भय" से की कहीं वो औरत
लहरा ना दे "विद्रोह का परचम"...!!!!
:--स्तुति-
देख दुर्गा की प्रतिमा, हाथ दुःशासन के रुक गये
नरभक्षी दानव के चक्षु, स्वतः लज्जा से झुक गये
अधर्म पर एक बार फिर से हुई धर्म की जीत
प्रतिमा पूजन की इसीलिये चली आ रही रीत
महिषासुर हो या रावण हो, होता है संहार
प्रतीकात्मक रूप में चाहे, पावन हर त्योहार-
निःशब्दता के अजेय प्रतिमान की तदाकार स्थापिका
माटी के नश्वर तन में प्रतिमा
मुखरित अभिव्यक्ति सम्मोहित सी मुस्कान
श्रेष्ठशील की मनःवेदी
विभूषित ब्राह्मी ब्रम्हाणी
न अरि
नारी!!-
पहले कभी कभी मैं कुछ सुना दिया करता था,
मगर शायद अब भूलने लगा हूं मैं गुनगुनाने।
दिल की बात दिल से कह देता था,
मगर अब ख़्यालों को मिलने लगे बहाने।
सोचते ना थे पहले होगी कोई छलांग कितनी बड़ी,
और आज हर छोटी सी बात पे लगे क्यों हम घबराने।
दिल अब बहुत जल्दी टूट जाता है,
शायद ज़िन्दगी ने बना दिया थोड़े सयाने।
दीवारों में अब दरारें जल्दी पड़ जाती हैं,
सबने शायद सीख लिया है रिश्तों को आज़माने।
नए तरीके और नए हालात बदलना हर बार पड़ेगा,
वो लम्हें याद आते हैं जो कभी लगते थे पुराने।
अब हर काम चुटकियों में हो जाता है,
जिसको करने में लगते थे कभी कई ज़माने।
पलकों को अश्क पीने का हुनर आ ही गया,
देखो हम लगे आज थोड़ा सा मुस्कुराने।-
तुम्हारा दिया अवसाद,बना चरण प्रसाद÷÷
उबड़-खाबड़ ज़मीं
नन्हें कंकड़ से बनीं
श्वांस श्वांस थमीं थमीं
हृदय की पगडंडी से धीरे-धीरे
चलते आए तुम्हारे अनकहे शब्द,
छाले पड़ आए,,,एहसास चरमराए,
एक एक कण जुड़ा,,
सतमासा कमजोर जन्मा
रूप शैल का धरा,अडिग खड़ा
अवसाद और तन विशालता
न धूप,न छाँव का अता-पता
मौन की संप्रेषित धुन टकराती
तुमसे मुझ तक वापस आती,
कौन सुनता है व्यथा की कथा,
रचना अनुशीर्षक में.............-
आरशातील माझी प्रतिमा,
माझी सर्व रूपे दावते मला..
पण, खरी प्रतिमा माझी,
दिसते ना कोना...
किती मुखवटा घालून जरी फिरलो,
तरी ती माझ्याशी मात्र खरी बोलते...
लोकांच काय ओ,
त्यांना तरी कुठे भावना कळते...
आरशातील माझी प्रतिमा,
जरी लोकांना फसवते..
माझ्यातील खरी प्रतिमा दावून,
मला मात्र इमानदारी शिकवते....
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बसले समोर घेवूनी अनेक रूपे
स्वतःला कधी व्यक्त केलेच नाही,
रंगविलेला पाहुन तोच तोच चेहरा
आरशाला मी खरी कळलेच नाही !-
माझ्या मनातील आरसा माझी प्रतिमा दाखवत होता,
माझ्या मनातले विचार आज तो प्रतिमेत सर्वांना दाखवत होता,
मला नव्हती आवडत त्या आरसाची,
का कोणास ठाऊक त्यात माझा चेहरा दिसला,
मनात घोळमत असलेल्या प्रश्नाचं,
उत्तर मला त्या माझ्या प्रतिमेत दिसलं,
आज ही मी तसाच आहे उद्या मात्र विचार बदलतील,
सर्वांच्या विचाराने ते आज एकमेकांना ओढत बसतील,
कधी वाटलं नव्हतं ,
पुन्हा मी तिथेच उभा राहील,
जवळून दिसणाऱ्या चेहऱ्याची ,
खरी ओळख मी त्या आरशात पाहिलं,
आरशा मात्र तुमची खरी ओळख सांगत असतो,
एकमताने ठाम होण्यासाठी तो आज तुमची प्रतिमा दाखवत असतो.-