आभार 🙏
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जो प्रकाशित हो जाये वो साहित्य नहीं,
साहित्य तो वह है जो प्रकाशित करे।-
जुदाई
वक्त है ठहरा हुआ
कैसी ये तन्हाई है,
रात गई सुबह हुई
फिर भी क्यों अंगड़ाई है।
नींद नहीं नैनों में
पर सपनों की परछाई है,
सुख-चैन सब कुछ गुमा,
कैसी घड़ी ये आई है।
कभी भूलूँ कभी यादों में खोऊँ
प्यार की ये गहराई है,
एक क्षण लगे घंटा समान,
लंबी बड़ी जुदाई है।
नहीं छँटते गम के अंधेरे
क्या यही जीवन की सच्चाई है,
किसके लिए अब रुके 'विश्वासी',
हर तरफ नफरतों की खाई है।
वक्त है ठहरा हुआ
कैसी ये तन्हाई है,
रात गई सुबह हुई
फिर भी क्यों अंगड़ाई है।-
अपने आप को प्रकाशित करना
अर्थात:आत्मा का प्रतिबिंब दर्पण
में देखना।-
...दिया
मंद-मंद हवा की बयार
दिये के रह-रह के
जलती-बुझती लौ
अपने होने का प्रमाण हैं
प्रकाशित करती है
उस क्षमता को जो
दिये की दृष्टिगोचर है
स्वयं तमस में स्थित है
संगति उज्ज्वलमय हैं !
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एक किरण आशा की.. काफी है सूरज बनने को
पर्याप्त दीप तेज़ भी है, पथ प्रकाशित करने को!
वैसे तो लक्ष्य भेदने को,मैं एकाकी भी कम तो नहीं
पर,काँधे पर हो हाथ तेरा,दृढ़ संबल मन का बनने को!!
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शिव और शक्ति का संयोग का शुभ अवसर
शिव-पार्वती का तेज सर्वत्र व्याप्त है
कर रहा प्रकाशित संपूर्ण जगत है
महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ-
जाना फिर अकेले है
ज़िन्दगी है चार दिनों की
फिर क्यों ये झमेले हैं,
आए थे जग में अकेले
जाना फिर अकेले है।
इंसान है हैवान न बन
छल-दंभ की दुकान न बन,
कौन है अपना कौन पराया
सब दुनिया वाले तेरे हैं।
आए थे जग में अकेले
जाना फिर अकेले है।
(पूरी कविता captionमें पढें)-
बदलाव सियासत की
सुकून लिये चेहरे का मुस्कान क्यों बदल रहा है?
दिन पर दिन ये इंसान क्यों बदल रहा है?
दुहाई देते थे जो धर्म और नीति की,
आज उन्हीं का ईमान क्यों बदल रहा है?
काली करतूतों को छिपाने के लिये,
लोगों का दूकान क्यों बदल रहा है?
गाली देते थे जिनको कल तक,
आज उन्हीं के लिये जुबान क्यों बदल रहा है?
आम से खास बन गये थे जो,
फिर उनका पहचान क्यों बदल रहा है?
अब तक जी हजूरी करते थे जिनकी,
अचानक से ही निशान क्यों बदल रहा है?
मची है हलचल सियासी गलियारों में,
हड़बड़ी में रोज फरमान क्यों बदल रहा है?
बिगुल बजी नहीं अभी चुनाव की,
दिग्गजों का मैदान क्यों बदल रहा है?
कहे 'विश्वासी' विश्वास से,हो न हो,
पंचवर्षीय सत्ता का कमान बदल रहा है।-