देह_प्रेम
(Caption में पढ़े )-
जब कभी भी
पुरुष के किसी
दोष का दण्ड
एक स्त्री को
चुकाना पड़ा है
.
स्त्री ने
सफाई देने से
बेहतर समझा है
आजीवन
पत्थर हो जाना-
जब ईश्वर ने
स्त्री को रचा
कूट कूट कर भरी
उसमें सक्षमता
जब ईश्वर ने पुरुष को रचा
उसे भी हर प्रकार सक्षम बनाया
दोनों की तुलना ना हो
इसीलिए
स्त्री और पुरुष को
एक दूसरे का पूरक किया
लेकिन
पुरुष ने स्त्री की सक्षमता को
कभी नहीं स्वीकारा
स्वीकार करने का गुण
उसने क्या केवल स्त्री में भरा ??
यदि नहीं .. !! तो पुरुष की सोच
पितृसत्तात्मक या कि पुरूषवादी
कब और कैसे हो गई ??-
स्त्री के मन को समझना उतना ही मुश्किल है जितना पुरुष के प्रेम की गहराई को समझ पाना..
जब तक स्त्री अपना मन और पुरूष हाथ, "थामे" रखते हैं उन दोनों से ज़्यादा भावुक और समर्पित कोई नहीं होता....
लेकिन जिस दिन मजबूत होकर स्त्री अपना मन आज़ाद और पुरुष प्रेम करना, "छोड़ते" है, दुनिया की कोई भी ताकत दोनों को ही, वापिस बंधन में नहीं बांध सकती...!-
कहने को स्त्री कोमल है और पुरुष मजबूत..
पर एक स्त्री, पुरुष के भावुक पक्ष से और पुरुष, स्त्री के मजबूत पक्ष से सबसे अधिक आकर्षित होते हैं..!-
कितने आँसू हैं जो लड़के पी गए
कितनी बातें हैं जो लड़कियाँ बोली नहीं
"आँसू लड़कियों की भाषा है और बोली लड़कों की"
ये कहकर
कितने पुरुषों के आँसू स्त्रियों की आँखों से बहाए गए
कितनी बातें स्त्रियों की पुरुषों के ज़ुबाँ से सुनी गई
बाँधा गया है सदियों से दोनों को भाषायों में
अगर बोली स्त्री की भाषा नहीं थी
तो उसकी ज़ुबाँ का होना कुदरत का मज़ाक रहा होगा
अगर आँसू की भाषा केवल स्त्री जानती है
तो पुरुषों का आँखों के साथ जन्म लेना एक संयोग मात्र
.
हमको पढ़ाया गया केवल शरीर का विज्ञान
भाषा विज्ञान जला दिया गया
फिर बचे अवशेषों ने पोंछ दिये आँसू और काट दी ज़ुबाँ!-
खामोशी का पैरहन पहन
ज़ज़्बात छिपाना जानते हैं
पुरुष भी अपना दर्द छिपाना जानते हैं...
इज़ाज़त नहीं है उन्हें
अश़्को का दरिया बहाने की
मोतियो को सीप में कैद करना जानते हैं.. ...
शामों सहर की खबर नहीं
पर ज़िन्दगी का हर सफ़र
सांसो के संग ही तय करना चाहते हैं....
पेशानी पर खींची लकीरें
घर की दहलीज पे नहीं
पायदान पर झाड़ कर आना जानते हैं.....
झुका लेते हैं कांधे
अपनों की मुस्कुराहट के लिए
भूलकर दर्द अपना मुस्कुराना जानतें हैं....
पुरुष भी संवेदनशील होते हैं
स्पर्श पा कर प्यार का
कठोर हृदय भी पिघलना जानता है....!
-
कभी सोचा है
स्त्री नदी तो है पर
पुरुष समंदर नहीं
फ़िर वो उसी ओर क्यों बहती है
अपना अस्तित्व खोने को.-
होता बालक निर्दोष, निश्चिन्त, सबकुछ सरल समझता हूँ!
कभी जिद्दी, कभी अड़ियल टट्टू, कभी आँख का तारा बनता हूँ!
होता बेटा अपने माँ बाप का उत्तरजीवी सूचक से,
कभी राम, कभी श्रवण, कभी परसुराम सा बन जाता हूँ!
होता प्रेमी किसी प्रेयसी का गढ़ता प्रेम की परिभाषा,
कभी कृष्ण तो कभी शिव तो कभी कामदेव मैं बन जाता हूँ!
होता पति तो बन के अर्धनारीश्वर परिवार पोषक,
कभी मोम, कभी कठोर, कभी मासूमियत से निर्वाह करता हूँ!
होता बाप तो फस जाता दो पीढ़ियों के संतुलन में,
कभी चुप, कभी समझाइश, कभी आंख मूंद के चलता हूँ!
होता पितामह तो बन जाता हूँ छांव बरगद की मैं,
कभी लाचार, कभी अधिकार, कभी नसीहत से बातें करता हूँ!
होता पुरुष जो इस धरा पर, के महत्व पर गौर नहीं,
खग की भाषा खग ही जाने, सब पुरुषों को समर्पित करता हूँ!
_राज सोनी-
कई स्त्रियां दफ़न है
पुरुषों के हृदय में
और मस्तिष्क
मिथ्या अभिमान
से लबालब है
दरअसल पुरुष
पुरुषार्थ नहीं
अपने पुरुषत्व का
दास है-