_उम्मिद_
तेरी रहमत से ही
जिंदा हूँ -ए -मालिक......
के मै "उम्मिद" का परिंदा हूँ
-
ख्वाईशों से भरा एक परिन्दा हूँ मैं,
उम्मीदों से ही घायल और उम्मीदों पर ही ज़िन्दा हूँ मैं..!!-
मौसम की गुस्ताख़ी या मुझे कोई नशा छाया,
आज आँखों पे मेरी अजीब ख़ुमार आया है!
उड़ा के देख लिया मैंने हर बार वो परिन्दा ,
स्नेह के ख़ातिर ही जो गगन छोड़ आया है!
करके अच्छाई मैंने यूँ बहती हुई दरिया में,
ख़ुद को हमेशा आईने में ही तन्हा पाया है!
घूमते रह जाते है कुछ लोग यहाँ मर कर ,
महसूस हो अपना न ही ऐसा कोई साया है!
उठने लगे कितने सवाल अब जहन में मेरे,
क्या कभी कोईं मुसाफ़िर ज़बाब लाया है!
हम शय माँगते रहें उसी से सलामती का ,
जिसने बनके शाकाहारी माँस ही खाया है!
कर ले मुझपे सितम तू फ़िर से सितमगर ,
मन धूल समान और मिट्टी होती काया है!
कुचल देगा एक दिन तेरा अहम ही तुझे ,
समझते नही इंसान यहाँ सब कुछ तो माया है!!-
वक़्त परिन्दा था रुका नहीं,
राह थी जुदा हो गयी कहीं.
सफ़र था ख़त्म हुआ नहीं,
यादें थी ठहर गयी कहीं..-
उसके दामन से छूटा तो जहाऩ देखा है ,
कैदी परिन्दे ने आसमान देखा है..-
पँख फैलाये, परिन्दा बना था
उड़ते-उड़ते पहुँचा वहाँ था
जहाँ तू थी, मैं था
उजाला था, अँधेरा था
तेरे और मेरे सिवा,
तीसरा कोई न था
तुझ में खोया था
तुझ संग खोया था
जी भर कर मैं रोया था
क्या लिखूँ, क्या गाऊँ
क्या इस दुनिया को बताऊँ
मैं तो होश में ही नहीं था
पँख फैलाये, परिन्दा बना था
उड़ते-उड़ते पहुँचा वहाँ था
जहाँ तू थी... मैं था
- साकेत गर्ग 'सागा'-
उम्र का परिन्दा
बेख़ौफ़ उड़ता है
समय के पंख लिए
..
ज़िन्दगी जंगल है
और
इस जंगल में कोई ठिकाना नहीं
इस परिंदे का
इसे भटकना है और ये भटकता भी है
जंगल-जंगल
हर एहसास महसूस करता है
और थाह पाता है अपनी
ढलती शामों में किसी मंदिर की मुंडेर पे
ये सोचते हुए
कहाँ ज़ाया किया जीवन
जी लगा कर वन से-